कविता शीर्षक : तिलचट्टों-से मकान सफ़र की खिड़कियाँ मुझे हरदम याद रहती हैं... और याद रहता है उसका एक मामूली दृश्य, सुदुर पीले खलिहानों और प्रकृति की हरितिमा में जो दिखती हैं कभी-कभार कच्चे मकानों की दीवारें तिलचट्टों की तरह... विहग विहंगम के पंख पंख सी हवा तेज़ कानों में थर्रा देती है गूँज ... यहाँ की वनस्पतियाँ और उद्भिद सब रेल रेल में खड़े हैं बस यहीं किसी अंत तक।