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इश्क भी एक जुर्म ही है पहले नज़रे आपस में "लड़ती"

इश्क भी एक जुर्म ही है
पहले नज़रे आपस में "लड़ती" है,
फिर नज़रे "चुराई" जाती है, 
दिल "घायल" होता है,
फिर नींदे "उड़ाई" जाती है,
चैन-ओ-सुकुन या तो "लापता"हो जाता है
या उसका "अपहरण" हो जाता है, 
इश्क के ख्यालों में डूबे डूबे 
"मानसिक शोषण" हो जाता है,
इज़हार कि छुरी से
या तो इश्क का "खून" होता है
या कोई "पराया" अपना हो जाता है।
मगल इस अपराध कि कही रपट नही लिखती
कही सुनवाई नही होती,
इश्क में दलीले नही होती,
गवाही नही होती।
यह जुर्म हर कोई करता है
हर कोई करना चाहता है,
एक बार ज़िन्दगी में
इश्क़ की हाथकड़ियों में बंधना चाहता है,
आरोपी इस गुनाह की माफ़ी नहीं
इस जुर्म की सज़ा मांगता है,
बाइज़्ज़त बरी होने की नहीं
ताउम्र क़ैद की दुआ मांगता है,
बड़े खुशनसीब होते है वो लोग जो यह case हार जाते है
जीत कर अपना इश्क़ खुद को हार जाते है।।

©Pawan Shah
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