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किताबें करतीं हैं बातें मुझे किसी के सिसकने की,

किताबें करतीं हैं बातें

मुझे किसी के सिसकने की, 
कहीं से आवाज़ आ रही थी।
जो कि लगातार मेरे कानों से,
आकर अब भी टकरा रही थी।

ढूँढा उसको मैंने, पर कहीं न पाया,
आवाज़ ने उसकी, कहर बरसाया।
ध्यान को केंद्रित भी नहीं कर पाया,
इस कदर उसने मुझको भटकाया।

ध्यान लगाया आवाज़ पर, तो पाया,
हल्की सी दबी साँसों को सुन पाया।
कहीं पर लगा था ढेर, किताबों का,
जिस पर लगी धूल को मैं देख पाया।

निकलने लगा मैं जब वहाँ से,
बोली तभी किताब तपाक से।
यूँ ही देख कर मुझे जा रहे हो,
मुझे बिना सुने ही भाग रहे हो।

सुन कर दुविधा में आ गया,
रुका मैं इंसानियत के नाते।
तब जाकर समझ में आया,
कि किताबें करती हैं बातें।
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देवेश दीक्षित

©Devesh Dixit 
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किताबें करतीं हैं बातें

मुझे किसी के सिसकने की, 
कहीं से आवाज़ आ रही थी।
जो कि लगातार मेरे कानों से,
आकर अब भी टकरा रही थी।
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Devesh Dixit

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