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रोज की तरह साँझ फिर ढल रही थी दीपक में बाती फिर जल

रोज की तरह साँझ फिर ढल रही थी
दीपक में बाती फिर जल रही थी
मैं खिल कर मुरझा गई थी
ठहरी रात संग उम्मीद चल रही थी
एक नई सुबह के आने की

©Rajni Sardana
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