काल सर्प।।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।
विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता।
स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी।
अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी।
वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता, #Poetry#Quotes#Life#kavita#hindikavita#hindipoetry