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काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफ

काल सर्प।।

प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।
विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता।

स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी।
अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी।
वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता,
आडंबरों के युग मे चित बैठ अंदर धिक्कारता।
किसी अश्वमेधी यज्ञ का बन अश्व सरपट भागता,
निर्बल सबल सब भेदहींन, बढ़ रहा सबको धांगता।
जीवात्मा नेपथ्य से, है कराहता और पुकारता।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।

किसके उदर का एक निवाला धूलधूसरित हो रहा,
अनाजों के ढेर चढ़, रोटियों का ही गणित हो रहा।
इस समर में था कौन जीता, कौन था तटस्थ बना,
पाप है या पुण्य है ये, एक दूजे में था समस्त सना।
धन की बोरी कोई लादे, कष्ट कोई झुक है ढो रहा,
पाप कालिख है अब नहीं, जा गंगा में सब धो रहा।
रहे कब तलक वो मूक बैठे, है उठ अब हुंकारता।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।

बस किनारे बैठ कर, जलधार की थी विवेचना,
मन भटकता मझधार में और सो रही थी चेतना।
गहराई को मापा नहीं, थाह नहीं कोई वेग की,
स्वप्नसज्जित लालसा, कमी रही एक डेग की।
ले लेखनी लिख रहा, मैं आज मनुज के हार को,
टाल मैं जाऊं कहीं, इसके भावी समूल संहार को।
मैं भविष्य हूँ देखता, कागज़ पे उसे हूँ उतारता।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।

©रजनीश "स्वछंद" काल सर्प।।

प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।
विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता।

स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी।
अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी।
वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता,
काल सर्प।।

प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।
विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता।

स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी।
अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी।
वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता,
आडंबरों के युग मे चित बैठ अंदर धिक्कारता।
किसी अश्वमेधी यज्ञ का बन अश्व सरपट भागता,
निर्बल सबल सब भेदहींन, बढ़ रहा सबको धांगता।
जीवात्मा नेपथ्य से, है कराहता और पुकारता।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।

किसके उदर का एक निवाला धूलधूसरित हो रहा,
अनाजों के ढेर चढ़, रोटियों का ही गणित हो रहा।
इस समर में था कौन जीता, कौन था तटस्थ बना,
पाप है या पुण्य है ये, एक दूजे में था समस्त सना।
धन की बोरी कोई लादे, कष्ट कोई झुक है ढो रहा,
पाप कालिख है अब नहीं, जा गंगा में सब धो रहा।
रहे कब तलक वो मूक बैठे, है उठ अब हुंकारता।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।

बस किनारे बैठ कर, जलधार की थी विवेचना,
मन भटकता मझधार में और सो रही थी चेतना।
गहराई को मापा नहीं, थाह नहीं कोई वेग की,
स्वप्नसज्जित लालसा, कमी रही एक डेग की।
ले लेखनी लिख रहा, मैं आज मनुज के हार को,
टाल मैं जाऊं कहीं, इसके भावी समूल संहार को।
मैं भविष्य हूँ देखता, कागज़ पे उसे हूँ उतारता।
प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।

©रजनीश "स्वछंद" काल सर्प।।

प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता।
विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता।

स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी।
अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी।
वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता,

काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता। स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी। अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी। वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता, #Poetry #Quotes #Life #kavita #hindikavita #hindipoetry