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deepanshu1148
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Deepanshu

मेरी रचनाएं पढ़ लीजिए, आप खुद-ब-खुद मुझे जान जायेंगे.....

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Deepanshu

White मुझे शाम के शौकीनों का शौक़ है अब,
मुझे दिन वालों से क्या, रात वालों से क्या;
मुझे "हमउम्रों" की फ़िक्र से फर्क पड़ता है,
मेरे पहले वालों से क्या, बाद वालों से क्या।

©Deepanshu #Sad_Status  #alone #life #lifequotes #lifelessons #love #lovelife #poem #poetry #Heart
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Deepanshu

White ना मृगनयनी मैं नैन लिखूंगा,
ना स्व प्रभात उसको रैन लिखूंगा।
ना हिरनी जैसी चाल लिखूंगा,
ना काली घटाओं सा बाल लिखूंगा।
ना गोरे गोरे गाल लिखूंगा,
ना उसका "ची" सुर ताल लिखूंगा।
ना पुष्पम उसके हाथ लिखूंगा,
ना मनभावन उसकी बात लिखूंगा।
ना आलौकिक मैं मुस्कान लिखूंगा,
ना सज्जन उसके प्राण लिखूंगा।

वो साधारण कन्या मुझसे मिलने वाली,
मैं उसको लड़की "आम" लिखूंगा।

©Deepanshu #Sad_Status  #alone #life #lifequotes #lifelessons #love #lovelife #poem #poetry #Heart
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Deepanshu

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©Deepanshu #alone #life #lifequotes #lifelessons #lifequote #lovelife #poem #poetry #Love #lovequotes
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Deepanshu

White पहली बार नजरें मिली थीं हमारी,
मैं काँप रहा था।
लेकिन मैंने अपने शरीर को वश में रखा।
तुम मुस्कुराई,
मेरे हृदय की कपकपी बढ़ती गई,
तभी, तुमने नाम पूछ लिया।
ऐसा लगा,
जैसे अब मेरा हृदय मेरी छाती को चीर देना चाहता है।
मैंने धीरे से नाम कहा।
तब मैंने देखा तुम्हारे माथे की ओर,
और बस देखता रहा,
तुम्हारी उस बिंदिया को।
वो घास के ढेर में उस सुई के समान था
जिसने मेरे हृदय को घायल कर दिया।
शायद ये घायल होना चाहता था।
न जाने क्या,
लेकिन कुछ तो था तुम्हारी उस काली बिंदी में,
जो मुझे तुम्हारी ओर खींच रहा था।
वो बिंदिया बता रही थी,
कि तुम्हे किसी श्रृंगार की ज़रूरत नहीं।
उस बिंदिया से झलकती थी, तुम्हारी "सादगी"।
और तब,
मैंने तुम्हारे माथे को चूमा,
कल्पना में।
मेरे होठों ने तुम्हारी बिंदी का स्पर्श महसूस किया।
ऐसा लगा, जैसे,
मेरे शरीर में प्रेम बह रहा हो।
मैं सुन्न।
ख़ामोश।
पीछे से किसी ने टोका,
मालूम हुआ तुम जा चुकी हो,
और तुम्हारे साथ चला गया मेरे हृदय का चहकना।
रह गई तो तुम्हारे चेहरे की प्रतिमा, मेरी आँखों में,
और उसमे झलकती,
तुम्हारी "बिंदिया"।

©Deepanshu
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Deepanshu

White बरसात का मौसम था,
मैं छत पर भागा और देखा कि
वो अपने घोसले से बाहर उस लोहे की छड़ी पर बैठी है
जो दीवार से बाहर की ओर झुकती है,
और वो बारिश में भीगती हुई,
धीमी आवाज़ में चहकती है।
सोचा पास जा के देखूँ लेकिन,
वो उड़ गई।
उसका वो गाढ़ा रंग बहुत ख़ास नहीं था,
फिर भी उस छोटे से पक्षी में उत्सुकता थी,
उसकी नहीं, मेरी।
लेकिन न जाने कैसे, ये उत्सुकता खत्म होती रही।
कुछ सालों में।
उस दिन मैंने आकाश में पतंग उड़ते देखा,
मेरे मन की उस उत्सुकता को अब इस पतंग ने अपनी ओर मोहित कर लिया था।
मैं भूल गया, उस गहरे प्राणी को।
मेरे हृदय में अब उन रंग बिरंगे निर्जीवों का वास था।
एक शाम, अपने पतंग की डोर बाँधते हुए मैंने देखा
कि वो जीवित वस्तु उसी लोहे कि छड़ पर बैठी है,
मैं उसे देखता, और वो मुझे।
ऐसा लगा, जैसे वो मुझसे कुछ कहना चाहती है,
मैं आगे बढ़ा,
वो पीछे हटी,
मानो पूछ रही हो, "मुझे अपनी कहानियों में तो रखोगे न?"
मेरी आँखों ने इशारा किया, " हाँ"।
और फिर,
वो उड़ गई।
मैंने उसे ताकता रहा, लेकिन,
वो खो गई,
आकाश में उड़ते उन पतंगों के बीच।
मैं दौड़कर उसके घोसले की ओर गया,
उसी डोर में लिपटा उसका घर तिनका हो चुका था।
शायद वो जा चुकी थी,
हमेशा के लिए।

©Deepanshu
  ✍️🍁......

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Deepanshu

तुम आवाज़ उठाते हो जहाँ पानी का ना अंत है,
तुम्हारी चीख सुनने को उनके दोनों कान बंद है।

तुम पीड़ित हो न? तुम कुछ मत बोलो,
कीचड़ फेंका तुम पर? तुम मुँह धोलो।

तुम जाती हो छोड़कर हमे? अब हम शोक मनाएंगे,
हर पीड़ित को इंसाफ दिलाया है, तुम्हे भी दिलाएंगे।

देरी ही तो हुई है, इंसाफ तो सबको मिला है,
मां को न्याय तब मिला, जब बेटी ने भी झेला है।

उसे सज़ा कहेंगे और तुम्हे कहानी मानकर भुलायेंगे,
देरी के लिए खेद जताकर तुम्हे "देश की बेटी" बताएंगे।

(तुम्हे लड़की होकर लड़की कहलाने से डर लगता है,
आज़ादी है आज लेकिन हमे तिरंगा फहराने से डर लगता है।)

©Deepanshu
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Deepanshu

White उफ़! वो भीगी पलकें उसकी,
जिन्हे मैं आँखें बुझाए देखता हूँ;
मैं देखता हूँ उसके भीगे केश भी,
सब; लोगों से छिपाए देखता हूँ।

मेरी निगाहें उसके होठों पर जाती हैं,
मैं उनमें जीवन का सौन्दर्य देखता हूँ;
मैं निहारता हूँ उसके मटमैले चेहरे को भी,
मैं उसमे मिट्टी सा धैर्य देखता हूँ।

मैंने बंद किए सभी खिड़की - दरवाज़े,
उसकी वो धीमी गुफ्तगू सुनने के लिए;
आधे अँधेरे में, सभी पंखे तक बुझाए,
उसके श्वास की खुशबू सूँघने के लिए।

मैं कान बढ़ाता हूँ उसके हृदय की ओर,
मुझे लगा, ये मेरी जुस्तजू का अंत है;
फिर पर्दा उठता है, और अँधेरा अदृश्य,
कल्पित ये मेरी गुफ्तगू का अंत है।

©Deepanshu
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Deepanshu

White क्यों डरना कब्रिस्तान के मुर्दों से?
मुझे तो ना डर अब "श्मसान" का है,
क्यों खौफ होगा मुझे प्रेतों का?
मुझे तो डर अब "इंसान" का है।

©Deepanshu
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Deepanshu

White हमने मन ही मन वो महफ़िल जमाया था,
ना नृत्य, ना गान, बस खालीपन पाया था।
कोई कह दो हमारी ओर से उन्हें,
उस दिन हमने आँसुओं का अंबार छिपाया था।

©Deepanshu
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Deepanshu

White जब गले से निवाले गिराने नहीं है,
तो कंकड़ से चावल चुनते क्यों हैं?
जब चीर ही देना है अंत में उन्हें,
तो प्रेम से कपड़े बुनते क्यों हैं?

जब फ़ेक ही देना है दिल से उन्हें,
तो इनमें - उनमें ढलते क्यों हैं?
जब छोड़ ही देना है कहीं दूर उन्हें,
तो कदम-ओ-कदम चलते क्यों हैं?

अगर त्याग की भावना जानते नही हैं,
तो ये ढोंगी भेस बदलते क्यों हैं?
जब मिलकर चलना जानते नहीं हैं,
तो गिरकर फिर यूं संभलते क्यों हैं?

जब उनसे छलावा करना ही है,
तो उन्हें दाहिना हाथ कहते क्यों हैं?
जब आँखों में सागर भरना नहीं है,
तो एक मियान में साथ रहते क्यों हैं?

जब आप ही मृत्यु संजो लिया है,
तो किस्मत पर अपने खींजते क्यों हैं?
जब जलते रहे उनकी ऊंचाई देखकर,
तो अब इस मोड़ पर आकर पसीजते क्यों हैं?

©Deepanshu
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