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satyender6972
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सत्येंद्र सिंह

अंतर्मुखी छात्र के खयालो की दुनिया।

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सत्येंद्र सिंह

आज फिर मैंने, लक्ष्मी को जन्मते हुए देखा
उसके साथ ही, गम को पनपते देखा
हालातों के दरमियाँ उस बाप की आँखों में
खुशी की जगह, जिम्मेदारी का एहसास देखा। 

जिम्मेदारी जिसे सबने, किसी और पर थोपने को देखा
बचपन से ही उसे, ग़ैरों की तरह पालने को देखा
बार बार, अमानत दूसरे की हो, ये कहते हुए देखा
आज फिर एक बार मैनें, एक बच्ची को मरते हुए देखा। 

गुड्डे गुड्डियों से रसोई तक का सफर
बोहोत जल्द ही तय करते हुए देखा 
पढाई लिखाई से उसे, दूर होते हुए देखा
आज फिर एक बार मैंने, एक बेटी को मरते हुए देखा। 

बिना मौकों के उसे, तुलना का
पात्र बनते हुए देखा 
उसकी उपलब्धियों, को 
नजरंदाज होते हुए देखा
आज फिर एक बार मैंने, प्रतिभा को मरते हुए देखा। 

मुश्किल से 17 की हुई ही थी वो अभी
कि उसे पराई करने का, ख्वाब बुनते हुए देखा
फिर एक दूसरी बेटी ने उसे 
इस चक्रव्यहू से निकालने को देखा
लेकिन इस पापी समाज ने, फिर एक बार
इन दोनों को, चुप करवाने को देखा। 

सपने, जो कभी देखे ही नहीं जा सके
उन्हें राख होते हुए देखा
और अपने संगी के, सपनों का हिस्सा 
उसे बनते हुए देखा
आज फिर एक बार मैंने, एक युवती को मरते हुए देखा। 

पराए घर की मान मर्यादाओं में
सिमटते हुए उसे देखा 
पर्दे की आड़ में 
आज फिर एक बार मैंने, एक माँ को मरते हुए देखा। 

अपनी संतान के उपर से 
हक़ उसका, छिनते हुए देखा
एक और पीढ़ी को मैंने 
बिल्कुल, उसी सलीके से 
चक्रव्यहू में फंसते हुए देखा। 

बीत चुकी थी जब उम्र मेरी
तो फिर मैंने इस चक्रव्यहू 
को भेदने को देखा। 

लेकिन अफ़सोस, कौरवों से भरे
इस समाज ने एक बार फिर 
ज्ञान के अभाव में 
एक और योद्धा को, धर दबोचने को देखा। 

एक उम्र गुज़र जाने के बाद 
उम्रभर के गमों को, एक उम्र 
में मुकम्मल होते हुए देखा 
आज फिर एक बार मैंने
अपने आप को बिखरते हुए देखा।

©सत्येंद्र सिंह
  #Woman #SAD #Poetry #Poet
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सत्येंद्र सिंह

आज फिर मैंने, लक्ष्मी को जन्मते हुए देखा
उसके साथ ही, गम को पनपते देखा
हालातों के दरमियाँ उस बाप की आँखों में
खुशी की जगह, जिम्मेदारी का एहसास देखा। 

जिम्मेदारी जिसे सबने, किसी और पर थोपने को देखा
बचपन से ही उसे, ग़ैरों की तरह पालने को देखा
बार बार, अमानत दूसरे की हो, ये कहते हुए देखा
आज फिर एक बार मैनें, एक बच्ची को मरते हुए देखा। 

गुड्डे गुड्डियों से रसोई तक का सफर
बोहोत जल्द ही तय करते हुए देखा 
पढाई लिखाई से उसे, दूर होते हुए देखा
आज फिर एक बार मैंने, एक बेटी को मरते हुए देखा। 

बिना मौकों के उसे, तुलना का
पात्र बनते हुए देखा 
उसकी उपलब्धियों, को 
नजरंदाज होते हुए देखा
आज फिर एक बार मैंने, प्रतिभा को मरते हुए देखा। 

मुश्किल से 17 की हुई ही थी वो अभी
कि उसे पराई करने का, ख्वाब बुनते हुए देखा
फिर एक दूसरी बेटी ने उसे 
इस चक्रव्यहू से निकालने को देखा
लेकिन इस पापी समाज ने, फिर एक बार
इन दोनों को, चुप करवाने को देखा। 

सपने, जो कभी देखे ही नहीं जा सके
उन्हें राख होते हुए देखा
और अपने संगी के, सपनों का हिस्सा 
उसे बनते हुए देखा
आज फिर एक बार मैंने, एक युवती को मरते हुए देखा। 

पराए घर की मान मर्यादाओं में
सिमटते हुए उसे देखा 
पर्दे की आड़ में 
आज फिर एक बार मैंने, एक माँ को मरते हुए देखा। 

अपनी संतान के ऊपर से 
हक़ उसका, छिनते हुए देखा
एक और पीढ़ी को मैंने 
बिल्कुल, उसी सलीके से 
चक्रव्यहू में फंसते हुए देखा। 

बीत चुकी थी जब उम्र मेरी
तो फिर मैंने इस चक्रव्यहू 
को भेदने को देखा। 

लेकिन अफ़सोस, कौरवों से भरे
इस समाज ने एक बार फिर 
ज्ञान के अभाव में 
एक और योद्धा को, धर दबोचने को देखा। 

एक उम्र गुज़र जाने के बाद 
उम्रभर के गमों को, एक उम्र 
में मुकम्मल होते हुए देखा 
आज फिर एक बार मैंने
अपने आप को बिखरते हुए देखा।

©सत्येंद्र सिंह
  #Woman #Poetry  #Shayari #SAD
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सत्येंद्र सिंह

आँखें जो सवालों से भरी हुआ करतीं थीं
बयाँ जो बचपन का वो दौर करती थीं
ना ही तो शर्म हुआ करती थी
ना ही फ़िक्र हुआ करती थी
लेकिन फिर भी सवालों की पोटली एक
भरी रोज़ हुआ करती थी। 


आँखें भले ही हमारी थोड़ी छोटी हुआ करती थी 
लेकिन नज़रिए में ना मौजूद कोई खोट हुआ करती थी
नादानी हमारे अंदर से झलका करती थी
मासूमियत  हम में कूट - कूट कर भरी हुआ करती थी 
लेकिन फिर भी तकलीफ लोगों को 
हमसे खूब हुआ करती थी। 


ना जरूरत हमें खुद को सही साबित करने की हुआ करती थी
ना उम्मीद हमसे कोई खास हुआ करती थी
बिना कुछ करे ही कद्र भी हमारी खूब हुआ करती थी 
चाह हर किसी में हमारे नज़दीक आने की हुआ करती थी
इसीलिए हम बच्चों में
होड़ भी खूब हुआ करती थी।

©सत्येंद्र सिंह
  #Childhood  #Poetry  #Happy
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सत्येंद्र सिंह

तेरी मोहब्बत के अंजाम में 
8 बजे सोने वाले लड़के
रातभर जागकर, दूसरों को 
सोने की तालीम देने लगे। 

खुद तो रो रोकर काटते
लेकिन दुनिया को जिंदगी 
हँसी - खुशी जीने की सीख देने लगे। 

रास्ते ढूँढ नहीं सके
खुद के लिए कभी
लेकिन सड़क औरों को
फूलों से सजा कर देने लगे। 

तुझे खो देने के बाद भी 
तुझे खो देने के डर से
डर रखने लगे। 

मुलाकात की उम्मीद तो थी नहीं 
इसीलिए पहली मुलाकात को ही 
याद करके खुश
रहने लगे। 

तेरी मोहब्बत के अंजाम में
8 बजे सोने वाले लड़के
बिना सोए रहने लगे।

©सत्येंद्र सिंह
  #Love #SAD #romance #Poet #poem #poetry #Shayari

Love #SAD #romance #Poet #poem poetry Shayari #लव

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सत्येंद्र सिंह

था जब तक मैं खयालों में
सुकून बोहोत हुआ करता था 
जो खुलीं हैं आँखें मेरी तो पता चला
गलत मैं बोहोत कुछ सोचा करता था
जो बही अचानक से धारा एक आसुओं की
तो मालूम हुआ की रास्ता था वो बरबादी का
जिसपर मैं अब तक चला करता था।। 

खयालों से तो निकाल दिया तूनें
रास्ता वो बरबादी का देखना चाहिए था
कुछ देर और रुक कर 
वो आसूँ देखने चाहिए थे 
वो बेवजूद जिंदगी देखनी चाहिए थी
वो मैं जिस से मैं खुद डरता था
उस मैं को देखना चाहिए था।। ।। 

बोहोत बोलता था वो पुराना मैं की
तू जहाँ रहे खुश रहे
लेकिन अब उसे समझाना मुश्किल होने वाला है 
उसे फुसलाना बोहोत मुश्किल होने वाला है 
तेरे पास जाने से रोकना खुदको
नामुमकिन सा होने वाला है 
लेकिन अब समझाना होगा इस मासूम दिल को की 
बोहोत जल्द तू किसी और का होने वाला है।। 

पर गुस्सा नहीं हूँ तुझसे, थोड़ी नाराज़गी है
और वो तो देख रहने वाली है 
माना तूने जो किया हमारे भले के लिए किया
लेकिन उसके बदले में
तूनें मेरे जिस्म से रूह निकाली है
पर गुस्सा नहीं हूँ तुझसे क्योंकी वो 
आजादी तो मैंने अपने आप को दे ही नहीं डाली है।। 

था भले ही रास्ता वो बरबादी का 
सुकून बोहोत वो दिलाता था 
रास्ते को तो अब बदल दिया है मैंनें
सुकून नज़र नहीं आता है 
लौट आओ न वापस अब 
बरबादी का रास्ता वही मुझे भाता है।।

©सत्येंद्र सिंह
  #SAD #Love #Poetry #Shayari

#SAD Love Poetry Shayari #लव

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सत्येंद्र सिंह

आज फिर तेरे फोन के इंतज़ार में 
सुबह से शाम, शाम से रात और रात से वापस सुबह हो गयी। 
कहने लग गए मेरे चाहने वाले इस बेचारे को भी मोहब्बत हो गयी।

©सत्येंद्र सिंह
  #phonecall #Love #HeartBreak


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