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रजनीश "स्वच्छंद"

खुद की रूह को तलाशता एक आज़ाद परिंदा।।।।9811656875।।।।

https://www.amarujala.com/user/%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%B6-%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9B%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6?option=stories

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रजनीश "स्वच्छंद"

न थमता और रुकता है।।

लहू का सिलसिला देखो, न थमता और रुकता है,
कभी करता इबादत सिर, कहाँ जा आज झुकता है।

गली हो या सड़क कण कण, न बाकी एक भी कतरा,
लहू पानी हुआ मानो, ख़ुदा भी ईश भी बहरा।
कहाँ जा टेक लूँ माथा, सुनेगा कौन, जंगल है।
मुझे बस बाँग देनी है, सुबह पर है लगा पहरा।
तुम्ही कह दो ज़रा अब तो, बचा क्या आज जो कर लूँ,
दशा ये देख दुनिया की, व्यथित मन आज दुखता है।
लहू का सिलसिला.....

पराये और अपनों का, मिटा सब भेद चलता था,
बड़ी भिंची मगर मुट्ठी, बचाये रेत चलता था।
समय के गर्भ में जाने, अभी क्या और बाकी है,
वजह या बेवजह ही मैं, चढ़ाये भेंट चलता था।
न काबिल था ज़माने में, जिसे था आदमी कहता,
हुआ नीलाम हर रिश्ता, सरेबाज़ार लुटता है।
लहू का सिलसिला..

ज़मीं ये आशियाँ किसका, महज़ है ढेर लाशों का,
न ज़िंदा ज़िंदगी कोई, मगर है फेर साँसों का।
महल हैं रेत के सारे, जिसे ईमान कहते थे।
गिरा भर्रा यहाँ पल पल, फ़क़त है ढेर ताशों का।
कहानी और किस्से हैं, न सच का वास पन्नों में,
मुझे आज़ाद अब कर दो, कि दम सब देख घुटता है।
लहू का सिलसिला...

छुपाया दर्द जो कल था, हुआ नासूर है देखो,
बता अपना न थकते थे, खड़ा वो दूर है देखो।
न मरहम है, दवा कोई, लहू की प्यास बाकी है,
गले मिलता छुपा खंज़र, वही मशहूर है देखो।
न सच से सामना अब हो, यही बस प्रार्थना बाकी,
कि आदम रूप ये पत्थर, नुकीला आज चुभता है।
लहू का सिलसिला...

कलम चल लाल तू हो जा, लहू की तू कहानी लिख,
न कोई प्यार है समझे, कि नफ़रत की जवानी लिख।
खड़ा मैं मूक बधिरों सा, घसीटा फिर गया हूँ क्यूँ,
बता अब नाम क्या रख लूँ, ज़रा अपनी बयानी लिख।
किनारे बैठ सब देखा, मगर ख़ामोश मैं चुप था,
न शामिल मैं कहानी में, कथानक आन जुड़ता है।
लहू का सिलसिला...

©रजनीश "स्वछन्द"

©रजनीश "स्वच्छंद" #लाइफ #Truth_of_Life #duniya
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रजनीश "स्वच्छंद"

नववर्ष।।मंगल कामना।।

नववर्ष मंगल गीत नव, नव हर्ष अरु नव चेतना,
नवदेश वंदन प्रीत नव, उत्कर्ष अरु नव प्रेरणा।

हो नव किरण दिनकर प्रभा, नूतन ललित नव भोर हो,
हो खग चहक उत्कण्ठ नभ, नव स्वप्न ही चहुँओर हो।

निष्ठुर हृदय तज कर्म हो, निःशाप निर्मल ज्ञान हो,
लोचन दमक नवयुग सृजन, बल लेखनी का भान हो।

निःदर्प हो हर आतमा, नवरंग नव निज भावना,
नव स्वास रुधिरों में बहे, नव आस हो नव कामना।

हों भूत भय कम्पित नहीं, नव कल्पना नव शोध हो,
तजकर निशा, आलोक नव, सत्कर्म ही नव बोध हो।

©रजनीश "स्वच्छंद" #HappyNewYear
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रजनीश "स्वच्छंद"

#काव्ययात्रा_रजनीश
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रजनीश "स्वच्छंद"

#काव्ययात्रा_रजनीश 

#LoveStrings
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रजनीश "स्वच्छंद"

योगा दिवस: दोहे।।

योग बड़ा अनमोल है, मत जाना तुम भूल।
जीवन में शामिल करो, ये है जीवन मूल।।

जो जीने की लालसा, रोज करो तुम योग।
तनमन सब निर्मल करे, कैसा रोगी रोग।

पुरखे थे कह कर गए, बाँध चलो तुम गाँठ।
पश्चिम भी पूरब हुआ, बैठ न जोहो बाट।।

चेतन जो संसार है, योग रहा आधार।
क्यूँ जीवन तुम भागते, योग छुपा है सार।।

सृष्टि योग है आतमा, क्यूँ तकता आकाश।
कस्तूरी मृग नाभि है, ढूँढ़ बितायों साँस।।

©रजनीश "स्वछन्द"

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश
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रजनीश "स्वच्छंद"

#काव्ययात्रा_रजनीश
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रजनीश "स्वच्छंद"

काव्ययात्रा_रजनीश

काव्ययात्रा_रजनीश

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रजनीश "स्वच्छंद"

काव्ययात्रा_रजनीश

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रजनीश "स्वच्छंद"

#काव्ययात्रा_रजनीश
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रजनीश "स्वच्छंद"

पदत्राण ।।

कुछ याद पुरानी आयी है,
सिहरन देखो फिर छायी है।
इस जीवन का हर एक सबक,
जूते ने याद करायी है।।

चूँ चूँ चीं चीं करता जूता,
मुस्कान बड़ी भरता जूता।
जो चलने की थी एक ललक,
पूरी मेरी करता जूता।

पढ़ने लिखने के दिन आये,
बेधड़क बताये बिन आये।
हाँ स्लेट नहीं अब कॉपी थी,
जो लिखा मिटाये बिन आये।

जब गणित पढा भूगोल दिखा,
भौतिकी रसायन गोल दिखा।
इतिहास रहा क्या मत पूछो,
तारीखों में भी झोल दिखा।

ऐसे पढ़कर मैं क्या पाता,
नम्बर बोलो फिर क्या आता।
मास्टर जी बड़े सलीके से,
घर आये ले पोथी छाता।

सोचो मुझपर क्या बीत रही,
भरभरा गिरी सब भीत रही।
बाबूजी से मैं क्या कहता,
जूते से मानो प्रीत रही।

जो सोचा था सब सच पाया,
जूते से कब मैं बच पाया।
इतिहास खुला सब बोल रहा,
इतिहास कहो कब रच पाया।

दनदना चले थे तब जूते,
कब हाथ टले थे तब जूते।
विज्ञान पे भी मन खीझ रहा,
क्यूँ नाथ बने थे तब जूते।

चमड़ा चमड़े से जा चिपका,
मैं खड़ा रहा था तब ठिठका।
कुछ याद नहीं गिनती भूला,
हाँ रोम रोम था तब सिसका।

वो बदल समय फिर आन पड़ा,
जूते ले मैं हूँ आज खड़ा।
बाबूजी मानो देख रहे,
मैं हूँ घिग्घी फिर बाँध खड़ा।

ये समय भला कब रुकता है,
है टीस बना ये दुखता है।
पर हाँ ये भी तो सच ही है,
सूरज ढल कर ही उगता है।

फिर भी मेरा जूता दे दो,
बचपन मेरा बीता दे दो।
माँ की गोदी और पितृ लाड़,
जो समय रहा जीता दे दो।

©रजनीश "स्वछन्द"

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश
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