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करन सिंह परिहार

गीतकार

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करन सिंह परिहार

सभी को करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएं
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देखती छलनी के उस पार, लिए मृदु कोमल सी मुस्कान।
नयन बिच नीरव प्रेम अपार,नेह उर सरिता सिन्धु समान।
देखकर  तन्वंगी  कटि  चाल, चांद  भी  शर्माया  है आज।
प्रिये  का  देख  प्रेम  शृंगार  , हुआ  मैं  तन मन से बेजान।
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©करन सिंह परिहार
  #happykarwachauth
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करन सिंह परिहार

बेशक दीप जलाओ घर में अंधियारा हरने की खातिर ।
पर दीपक की लौ से पूछो कितने शलभ जलाए तुमने।

©करन सिंह परिहार
  प्रकाश

प्रकाश #कविता

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करन सिंह परिहार

प्यासे होंठों से पूछो पानी की कीमत।
आँखों से पूछो सुरमेदानी की कीमत।
धोखा खाये हुए प्यार से जाकर पूछो।
यादों  में  बर्बाद  जवानी  की  कीमत।
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©करन सिंह परिहार
  #Sukha
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करन सिंह परिहार

अंधियारा नित बाढता, बौना हुआ उजास।
राहु सूर्य को खा रहा, शशि करता परिहास।
शशि करता परिहास, मौन हैं सभी दिशाएं।
जुगनू मिलकर आज, दीप को ज्ञान सिखाएं।
कहें करन परिहार, कुमति ने सबको मारा।
उजियारे को छोड़, मनुज ढूंढे अंधियारा।
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©करन सिंह परिहार
  #जुगनू
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करन सिंह परिहार


पंडितों ने शंख फूँके, मोमिनों ने दी अजानें,
भोर ने स्वच्छंद होकर, तब तमस पर विजय पाई।
राजनैतिक मुट्ठियों में कैद इल्मों के उजाले।
व्यर्थ आपस में भिड़े, हैं देश में मस्जिद-शिवाले।

कर्धनी में खोंसकर अभिमान के घातक तमंचे,
कारतूसें मजहबी ले साधना इतरा रही है।
जाति धर्मों में उलझकर हो गयी है चेतना जड़,
व्यग्र मन की भ्रांतियों पर दंभता मँड़रा रही है।
आस्था से जब नमाजें, आरती का दीप बालें,
तब विविधता में दिखाई लौ पड़ेगी एकता की।
चख रहे उपवास, रोज़े ही स्वयं छिप कर निवाले,
व्यर्थ आपस में भिड़े हैं देश में मस्जिद-शिवाले।

द्वंद के उठते भँवर में भावनाएं अग्नि बनकर,
जातिवादी आरियों को धार देने में तुली हैं।
दुधमुँहे मस्तिष्क में विध्वंसता का बीज बोकर,
सांप्रदायिक नीतियाँ अंगार देने में तुली हैं।
बेड़ियों ने जब पिघलकर क्रांतियों के पेड़ रोपे,
तब कहीं घुटती हवा में श्वास ने उन्माद पाया।
किन्तु अब वातावरण में लग चुके हैं मकड़जाले।
व्यर्थ आपस में भिड़े हैं देश में मस्जिद शिवाले।

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©करन सिंह परिहार
  #मतभेद
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करन सिंह परिहार


जगत के प्रेम का अभिसार हूँ मैं। 
नदी  हूँ  या  उदधि  परिवार हूँ मैं।
सिमटती जा रही मेरी रवानी,
व्यथाओं से भरी मेरी कहानी।
जनम से मृत्यु तक उद्गार हूँ मैं,
नदी हूं या उदधि परिवार हूँ मैं।
गुजरती हूँ सदा हिम आँगनों से।
पहाड़ों  से  घिरे  निर्जन वनों से।
फ़सल की उम्र का आधार हूँ मैं,
नदी हूं या उदधि परिवार हूँ मैं।
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©करन सिंह परिहार
  #नदी
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करन सिंह परिहार

याद में भाई बहन तुम्हारी, रोती है अँगना।
रोती है अँगना।

यादें सब पीहर की लेकर, मता के दिल में गम देकर।
आयी थी मैं खुशियाँ पाने, साजन के घर सपने लेकर।
लेकिन इस छलिए घर की मैं, समझ सकी न रँगना।
समझ सकी न रँगना।
याद------------------(1)

सोंचा क्या था क्या घर पाया, पैसा लालच किया पराया।
सास ससुर की बातें छोड़ो, पति ने भी मुझको तड़पाया।
ननद रोज है ताने देती, लायी क्या गहना।
लायी क्या गहना।
याद------------------(2)

रक्षाबंधन पर्व ये' पावन, आया खुशियाँ ले मनभावन।
राखी के इस प्रेम सूत से, झूम उठा हर घर में सावन।
लेकिन मेरे भाग्य में' केवल, आँसू का बहना।
आँसू का बहना।
याद-----------------(3)

आज  देश  में  हाहाकारी ,  बढे  दुष्ट  खल अत्याचारी।
जगह जगह में फैला मातम, चीख रही चिथडों में नारी।
रोज दहेजों में जलती हैं, बेटी औ बहना।
बेटी औ बहना।
याद -------------------(4)

कहें करन ऐ  दुनियावालो ,  मात  बहन की लाज बचालो।
कनक चमक में क्यों भूले हो, अपना भी कुछ कर्म बनालो।
प्रेम भाव की पढकर पोथी, बंद करो लड़ना।
बंद करो लड़ना।
याद----------------(5)
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©करन सिंह परिहार
  #rakshabandhan
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करन सिंह परिहार

राजपथों के ढोंगी नायक चंदन चाहे जितना मल लो।
सत्ता हथियाने की खातिर चाहे जितनी चालें चल लो।
पर मैं अपनी रचनाओं से तुम्हें पराजित सदा करूंगा।
और पसीने से लथपथ हर माथे के मैं गले लगूंगा।

जो  खेतों  के  संन्यासी हैं  सूर्य  ताप से नित मिलते हैं।
फटी कमीजों में अपने जो ओस बूंद के कण सिलते हैं।
जिसके साथ हमेशा रहता धुंध कुहासे का अपनापन।
जिसके आगे झूम - झूम कर मोर नित्य करते हैं नर्तन।
मैं  उन  मेहनतकश  अंगों में फूलों का मकरन्द भरूंगा।
और पसीने की-------------------------------------(१)

जाति-पांति का जहर घोलकर तुमने अपने भाग्य संवारे।
और  तुम्हारी  कूटनीति  से  जगह -जगह  दहके  अंगारे।
धर्मवाद  की  दग्ध चिता  मानवता को झोंका तुमने।
आम - जनों  को  मिलने वाले अधिकारों को रोंका तुमने।
पर  मैं  अपने  हर गीतों  में  तुम्हें  धरा  का  बोझ कहूंगा।
और पसीने-------------------------------------------(२)

जिन  हाथों  की  गीली  मेंहदी  सीमाओं पर हुई निछावर।
भरी  जवानी  विलग  हो  गया  जिन  पैरों से नेह महावर ।
जिनकी  कच्ची  उम्र  जवानी  के दर्पण को त्याग चुकी है।
और नींद जिन-जिन आंखों से अगणित रातें जाग चुकी है।
उन  आंखों  से  बहते  आंसू  का  जीवन  संग्राम  लिखूंगा।
और पसीने------------------------------------------(३)

©करन सिंह परिहार
  #राजपथों के ढोंगी नायक

#राजपथों के ढोंगी नायक #कविता

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करन सिंह परिहार

सांसों के रुकने  से  पहले,  मानवता  की पृष्ठभूमि पर।
निर्धनता से आहत मन की, सदा बिलखती पीर लिखूँगा ।।

कर्तव्यों पर मार कुल्हाड़ी , मठाधीश सब  बुद्ध हो गये।
और चीथडों की रोटी के, ग्रास निगल कर शुद्ध हो गये।
सहकारी गोदाम समिति में, खाद्यान्न सड़ने से पहले । 
हँसिया खुरपी की मूठों पर, भूखों की तकदीर लिखूँगा । 
सांसों ------ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ( 1 ) 

स्वाहा होते रहे मृत्यु तक,  अग्नि कुण्ड के सातों फेरे ।
अवशोषण के बंधक बनकर , आशाओं के पडे सवेरे ।
झोपड़ियों में व्यथित हृदय की, धडकन के रुकने से पहले ।
ग्राम्य क्षेत्र पर ऊँच-नीच की, खींची हुई लकीर लिखूँगा ।
सांसों - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ( 2 ) 

दस्तावेजों की फाइल में, कैद पडी हर कृषक योजना।
मनरेगा के चरण पकड़कर, चीख रही है श्रमिक वेदना।
ठेकेदारों के प्रांगण में , बालू  के  डम्पिंग  से पहले।
आवासों की ईंट ईंट पर, बिकता हुआ वज़ीर लिखूँगा ।
सांसों - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ( 3 ) 
- - - - - - - - - - - - - - - - - 
रचनाकार - करन सिंह परिहार 
ग्राम - पोस्ट - पिण्डारन 
जिला - बाँदा ( उत्तर प्रदेश ) 
सम्पर्क - 9619070195

©करन सिंह परिहार #विलखती पीड़ा संवेदिता "सायबा" Amit Pandey सूर्यप्रताप सिंह चौहान (स्वतंत्र) Shubham Gupta  Anjali Maurya

#विलखती पीड़ा संवेदिता "सायबा" Amit Pandey सूर्यप्रताप सिंह चौहान (स्वतंत्र) Shubham Gupta Anjali Maurya

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करन सिंह परिहार

सप्त पद चलकर तुम्हारे साथ, 
अग्नि को साक्षी बनाकर सात वचनों में बँधा हूँ।
पर अपूरित प्रेम का यह घट अभी तक भर न पाया।
क्यों प्रणय में भेद आया?

रिक्तता के आयतन को मापना चाहा दृगों से,
पर तुम्हारी तीक्ष्ण तिर्यक चितवनों से ड़र रहा हूँ।
संकुचित इस देह ने स्वीकार कर ली अब पराजय,
और मन के नेह नद की शुष्कता से मर रहा हूँ।
हाँथ में लेकर तुम्हारा हाँथ,
पाणिग्रहणिक आचमन की मंत्र ध्वनियों में बँधा हूँ।
पर सशंकित माँग में सिंदूर व्यापक भर न पाया।
क्यों प्रणय में भेद आया-----(1)

कुंभ लुढ़काया अपरचित पगों ने जब देहरी पर,
तब अमा के घोर तम् नें पूर्णिमा का चाँद पाया।
आगमन से प्रिय तुम्हारे मिट गई थी तपन सारी,
और हिंसक कृत्य मेरा  मृदु अहिंसक माँद पाया।
अंक में भरकर तुम्हारा माथ,
रीति रस्मों की अपरिमित वर्जनाओं में बँधा हूँ,
पर हथेली पर हिना का भाव सम्यक भर न पाया।
क्यों प्रणय में भेद आया------(2)

कुंडली के गुण व अवगुण जानने की थी न चाहत,
बस झुकी पलकों सहित मन का समर्पण चाहता था।
लग्न पत्री की परिधि को आँकने की थी न क्षमता,
बस शगुन की हल्दियों का पूर्ण अर्पण चाहता था।
छोड़कर वैराग्यता का पाथ,
अनछुई उस देह की प्रस्तावनाओं में बँधा हूँ,
पर असहमति के अधर में मूक व्यंजक भर न पाया।
क्यों प्रणय में भेद आया------(3)
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©करन सिंह परिहार #अपूरित प्रेम Kumar Shaurya अmit कोठारी "राही" संवेदिता "सायबा" सूर्यप्रताप सिंह चौहान (स्वतंत्र) Madhusudan Shrivastava

#अपूरित प्रेम Kumar Shaurya अmit कोठारी "राही" संवेदिता "सायबा" सूर्यप्रताप सिंह चौहान (स्वतंत्र) Madhusudan Shrivastava

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