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Mihir Choudhary
तुमने तो हँस के पूछा था बोलो न कितना प्रेम है बोलो कैसे मैं बतलाता बोलो ना कैसे समझता जब अहसास समंदर होता है तो शब्द नही फिर मिलते हैं उन बेहिसाब से चाहत को कैसे कैसे मैं बतलाता बोलो न कैसे दिखलाता बोलो न कैसे समझता तब भी हिसाब का कच्चा था अब भी हिसाब का कच्चा हूँ जो था वो ना मेरे बस का था अब तो जो हालात हुए उनसे तो मैं अब बेबस हूं अब अंदर -अंदर सब जलता है लावा जैसा सा कुछ पलता है धीमे धीमे कुछ रिसता है कुछ टूट-टूट के पीसता है नस-नस मैं जैसे कुछ खौलता है धड़कन बिजली सा दौड़ता है अब बेहिसाब ये यादे है बस बेहिसाब ये चाहत है बोलो क्या वो प्रेम ही था बोलो न क्या ये प्रेम ही है मिहिर... बिरहा
Anuj Ray
" बिरहा की रातें" न धुंआ न कहीं ,आग जला करती है, बिरहा की रातें यूं ही ,खामोश जला करती हैं जलता है बदन आग की लपटों में,दो बूंद की उम्मीद लिये, बेबसी हाथ मला करती है। फागुन का महीना हो, या घनी सावनी रातें, पिया मिलन की आस में, यूं ही ख़ला करती हैं। ©Anuj Ray #बिरहा की रातें
Ajnabee raja
|| कविता का भविष्य || अतीत... एक कवि कविता लिखता-लिखता मर गया, एक पीढ़ी कविता सुनते-सुनते मर गई। वर्तमान... एक कवि कविता लिखने की कोशिश कर रहा है, एक पीढ़ी कविता सुनने का प्रयास कर रही है। भविष्य... एक मरा हुआ कवि, एक मरी हुई पीढ़ी, एक अजन्मी कविता। ~सत्यमा्चार्य #NojotoQuote कविता का भविष्य
Parasram Arora
वो नहीं होती कविता जिसे सर्दी की ठिठुरन मे चाय क़े गर्म घूँट क़े साथ हलक मे उतार लिया जाय कविता तो कवि क़े संवेदित ह्रदय की वो उम्दा फ़सल है. जिसे कवि अपने ही खेत मे अपने लिए उगाता है लेकिन जिसे वो औरों मे बाँट कर ज्यादा प्रसन्नता का अनुभव करता है ©Parasram Arora # कविता का उदगम.......
shashwat ayush
रैदास से लेकर सूरदास तक... चंद्रवरदाई से तुलसीदास तक... भूषण से लेकर कबीर तक... ग़ालिब से लेकर मीर तक... मीरा से लेकर रहीम तक... रहमान से लेकर बाबा फरीद तक... रसखान से लेकर बहादुर शाह जफर तक... भारतेंदु से लेकर दिनकर तक... धरती से लेकर आसमान तक... हजारी प्रसाद से लेकर सुभद्रा कुमारी चौहान तक... जयशंकर प्रसाद से लेकर बच्चन की मधुशाला तक... महादेवी वर्मा से लेकर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तक... श्याम नारायण पांडेय से लेकर अज्ञेय के उक्त तक.... माखन लाल चतुर्वेदी से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक -शाश्वत_आयुष ©unknown historical truth कविता का सफ़र
Nisha Singh
कल तक गुड़ियों से खेली, अपने स्वप्न सजाती थी,, अपने सपनों को छोड़ आज, मैं तेरे स्वप्न सजाती हूं,, बाबुल का अंगना छोड़ सजना, तेरा आंगन महकाती हूं,, इंतजार में शाम ढले, दर पे तेरे पलकें मैं बिछाती हूं,, मुस्कराता देख तुझे, मैं भी खुश हो जाती हूं,, दिनभर की भूल थकान, फिर काम में जूट जाती हूं,, नए नए पकवान बनाकर, तुम को रोज़ खिलाती हूं,, तेरे मुख से तारीफ़ के दो शब्द, सुनकर ख़ुद पर इठलाती हूं ,, अपने सपनों को छोड़, आज तेरे स्वप्न सजाती हूं,, *निशा सिंह* ©Nisha Singh #कविता#साजन का आंगन