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शुभ'म
अभी भी वीर ने हार न मानी है, करते रहे प्रहार दुराचारी मिलकर उस बालक पर, फिर भी उसने चक्रव्यूह तोड़ने को ही ठानी है, उन निर्दयीयों को दया न उस पर आ रही थी, युद्धभूमि अब चन्द्रपुत्र के रक्त से, लाल रक्त भूमि हो जा रही थी, वह उठा फिर भी ललकार के, रथ का पहिया फेका है कौरव सेना पर, फिर भगदड़ मच चुकी थी दुष्टों के सेना पर, तभी चालाकी मे एक साथ, वह सभी अभिमन्यु पर तुट पड़ें हैं, अब अभिमन्यु अपनों से दूर हो चलें हैं, युद्धिष्ठिर खुद को कोसते और, अर्जुन से खुद का वध करने को कह रहें हैं, तभी बोले हैं मोहन, मत पश्चताएँ बड़े भैया, वीरता का उदाहरण होगा अभिमन्यु, युगो-युगो तक उसका नाम रहेगा, हर पिता के लिए एक ऐसा ही आस रहेगा, हर माँ के गर्भ में अभिमन्यु का ही वास रहेगा, बलिदान दिया है उसने जो मात के लिए, वह हर आने वाले पीढ़ी में एक उत्तमाश रहेगा....!! -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र की तेजशीलता Part-4
शुभ'म
युवराज के गरज को सुन कौरव हुए व्याकुल, मन में तीव्र शंका उठ रही उनके कि, कहां से आ गया पांडव कूल में ऐसा प्रतिभा कुल, कृष्ण भगिना के ललकार से, कौरव सेना पीछे जा रही थी, अब सेनापति द्रोर्ण और मामा, शकुनि की भी बुद्धि चकरा रही थी, कर्ण दुर्योधन-दुशासन तो दूर हो रहे थे हठी बालक के आगे उनके वीरता भी शुन्य हो रहे थे, तोड़ रहा इस भांति अभिमन्यु चक्रव्यूह के दरवाजे को, मानो कोई जैसे आग का गोला जा रहा है, कौरव सेना को काटते-काटते भष्म किया जा रहा है, अब मच चुका था कौरव सेना में हाहाकार, त्राहि माम,त्राहि माम की गूंज रही थी, बस हर तरफ यही एक पुकार, एक-एक करके अभिमन्यु ने, छह दरवाजे को तोड़ लिया, सातवें दरवाजे को तोडने वाला था कि, रथ के पहिए को युद्धभूमि ने अपने में फेर लिया, उसने सोचा कि रथ को उबार लूं, मगर जयद्रथ ने चलाया है धोखे में बाण, जिसे ना समझ सका है युवराज, घायल हो गिरा युद्धभूमि, जिसे पापियों ने है चारो तरफ से घेर लिया....!! -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र के तेजशीलता Part-3
शुभ'म
संशयग्रस्त युधिष्ठिर हुए अब और बेहाल, पुछे इसे कैसे तोड़ना जानते हो तुम, कैसे जानते हो इसका हाल, तभी अभिमन्यु बोला, मैं मां के गर्भ में था आंखों को खोला, पिताजी मां को चक्रव्यूह भेदन बता रहे थे, एक-एक दरवाजे तोड़ते और पार होते जा रहे थे, पिताजी ने छह दरवाजे तोड़ लिया, और सातवें में मां को आंख लग गई, जिससे मैं भी सो गया, और सातवें दरवाजे को, तोड़ने की कथा सुन रह गई, युधिष्ठिर बोले हे पुत्र, मैं तुम्हें युद्ध भूमि में नहीं भेज सकता, आखरी संतान हो तुम हम पांडव की, तुम्हारे बिन कोई पांडव वंश नहीं रह सकता, गरजे चंद्र पुत्र अभिमन्यु तेज प्रताप के साथ, हे काका श्री मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, चक्रव्यूह के छ: दरवाजे सब कुशल तोड़ जाऊंगा, जिससे कौरव होंगे भयभीत, और मैं इससे सातवां दरवाजा भी तोड़ कर आऊंगा, दिया युधिष्ठिर ने अब आयुष्मान भव: का आशीर्वाद, चल पड़े हैं गरज कर युवराज, अभिमन्युअब चक्रव्यूह के पास....!! -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र की तेजशीलता Part-2
शुभ'म
द्रोर्ण ने चली थी चाल अब फूटनीति की, पांडव से अर्जुन अलग करने की कूटनीति थी, धर्म के रक्षा-रथ पर सवार अर्जुन, युद्ध भूमि में अब अपनों से दूर हो चला था, कौरव के इस चाल को न समझ सके धर्मराज, जो उनके समक्ष "चक्रव्यूह" खड़ा था, अब युधिष्ठिर के चेहरे पर, संशय की मां आंख खड़ी थी, बार-बार दुर्योधन की ललकार, उन्हें परास्त के दरवाजे पर, ले जाने को अड़ी थी, तभी एकाएक बोला, सोलह बरस का सुकुमार सुभद्रा नंदन, हे काका श्री कुछ मेरा भी स्वीकार कर लो अभि "वंदन", गर्व से कहता हूं, हूं मैं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु, इस युद्ध भीड़ क्षेत्र में, अर्जुन की कमी नहीं खलने दूंगा, सौगंध है मुझे पिताश्री की, अब अपने मस्तक में मां द्रोपदी पर हुए, अत्याचारों को नहीं पलने दूंगा, अब बहुत हो चुका, आज्ञा दो हे काका श्री, चक्रव्यूह को तोड़ कर जाऊं, बढ़ जाऊं विजय पथ पर, और दुशासन का मस्तक फोड़ के आऊं, -Sp"रूपचन्द्र" खण्डकाव्य:चन्द्रपुत्र की तेजशीलता Part-1