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रजनीश "स्वच्छंद"
ज्ञान कुंड।। सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा, स्वर्णयुगी ये काल-खंड अवशेषमय होता रहा। आरोह और अवरोह में, सार्थक ध्वनि कहीं मन्द थी। कपट-क्लेश विकृत समर में, रोध-इंद्रियां बड़ी चंद थीं। स्फटिक धाग पिरो पिरो, मंत्रोच्चरित बल भी मूक था। अवधारणा प्रतिकूल थी, पथद्रष्टा ठिठक दो टूक था। अर्जुन सहज सखा कृष्ण भी, अश्व-टाप सार धूमिल रहा। अपभ्रंश शब्द कर्ण-पट पड़े, आशय अनर्थ कुटिल रहा। अर्थ भी बहुरुपिया हो स्वांगमय होता रहा। सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा। अवलोकन आलोक बिन, सामर्थ्य शब्द उधेड़ता। कर्म-शिल्पी कृतान्ध बन, कुविचार लब्ध उकेरता। जो दिग्भ्रमित वाहित हुआ, पथ ज्ञान कब वो वाचता। व्याधी-युक्त उपचार ले, किस मुख मनुज को जांचता। किस विधा परिवेश क्या, किस शोध जीव विहित हुआ। निःपुष्प तरु तोयहीन जलधर, अन्तर्मन सजीव निहित हुआ। बंशी-धुन की छांव में विलाप लय होता रहा। सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा। विषपान कर ले कंठ नील, नव-युग अन्वेषित हो रहा। कण कण धरा पुनीत धाम, दण्ड-दोष उल्लेखित हो रहा। देखो दमकती चल पड़ी, झुर्रियों में खिल रहा तारुण्य है। पत्तियों की झुरमुटों से, धरा से मिल रहा आरुण्य है। तम भेदती ये अरुणिमा, स्वागत गान में सृष्टि लगी। मानव हृदय के कपाट खोल, ये नव-सृजित दृष्टि जगी। दृष्टिपात से अंकुरित शीतल मलय होता रहा। सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा।। ©रजनीश "स्वछंद" ज्ञान कुंड।। सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा, स्वर्णयुगी ये काल-खंड अवशेषमय होता रहा। आरोह और अवरोह में, सार्थक ध्वनि कहीं मन्
Chintoo Choubey
घर- घर बाजे बधाई,......2 पधारे अवध रघुराई,सखी.....2 दीप जलाओ, मंगल गाओ...... चहुँ ओर फैली कुशलाई,सखी घर-घर बाजे बधाई....... अंगना धुलाओ, चौका सजाओ, छप्पन भोग लगाओ सखी,....... घर-घर बाजे बधाई........2 सखी, मोहनी सूरत, मर्यादा की मूरत, वो ऐसे धनुर्धारी सखी, घर-घर बाजे बधाई......2 चंदन लगाओ, कुंकुम लगाओ, थोड़ा सा कजरा लगाओ सखी,घर-घर बाजे बधाई.... है तो ऐसे बड़के भैया, चारों भैया में मनोहारी सखी, घर-घर बाजे बधाई...........2 चरण पखरो,थकन मिटावो, चर्नामृत से बली-बली जावो नैनन में अपनी बिठावो सखी,..... घर-घर बाजे बधाई.......2 हनुमत भी आए सीता जी भी आए, कुल को सादर कराओ सखी,... घर-घर में बाजे बधाई........2 मंगल गान
Govind Pandram
सुबह सुबह पूरब में देखो, अत्यंत मनोरम नजारा.. सूर्य की रौशन किरणों से, रौशन हुआ जग सारा.. वसुंधरा में हरियाली की, अनुपम छटा बिखर गई.. जल वायु से पोषित होकर, बाग में कलियाँ निखर गई.. शुरू हो गया फूलों पर, भौरों का आना-जाना.. एक सुमन से दूजे सुमन पर, तितलियों का मंडराना.. तरु की झुकी डालियों पर, कोयल लगे है गाने.. वन से नदियाँ गमन कर रहे, सागर तट तक जाने.. देख सुबह की प्रथम किरण, ओझल हुए सितारे.. फिर से रात की तलाश में, नभ से निकल गये सारे.. इस रंगबिरंगी दुनियाँ के, देखने मंजर प्यारे.. सुबह हुई फिर निन्दियाँ से, जागे नैन हमारे... 'सुप्रभात ' गोविन्द पन्द्राम #सुप्रभात "गान"