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MAHENDRA SINGH PRAKHAR
विधा गीत , सरसी छन्द विषय हिन्दी दिवस हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं , करता हूँ गुणगान । जिससे अपनी हो जाती है , अलग एक पहचान ।। हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं..... चाहे जो बोले अंग्रेजी , अपनी हिन्दी शान । वेद पुराण और रामायण , में हिन्दी का गान ।। अपने संग दिलाती मुझको , जग भर में सम्मान । हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं ... नहीं-नहीं अब चर्चा करना , बस करना है काम । हिन्दी का अब हिन्द नही ही ,बने विश्व यह धाम ।। मीठी प्यारी पाकर बोली , खिले अधर मुस्कान । हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं.... हिन्दी से छन्दों में रस है , वर्णों में है ज्ञान । मधुर-मधुर सब छन्द रचे हैं , सूरदास रसखान ।। लिखकर हिन्दी की महिमा वह , कहते इसे महान । हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं , करता हूँ गुणगान..... हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं , करता हूँ गुणगान । जिससे अपनी हो जाती , अलग एक पहचान ।। १४/०९/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR विधा गीत , सरसी छन्द विषय हिन्दी दिवस हिन्दी भाषा का निशिदिन मैं , करता हूँ गुणगान । जिससे अपनी हो जाती है , अलग एक पहचान ।।
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
करते थे कानून कल , मानव का कल्याण । अब तो हरते है यहीं , निशिदिन मानव प्राण ।। निशिदिन मानव प्राण , त्याग जाते हैं देखा । जैसे जीवन डोर , नही हाथों में रेखा ।। जाकर देखो पास , पूछ लो क्यों है मरते । बतलाये सरकार , विवश क्यों इतना करते ।। १०/०२/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR करते थे कानून कल , मानव का कल्याण । अब तो हरते है यहीं , निशिदिन मानव प्राण ।। निशिदिन मानव प्राण , त्याग जाते हैं देखा । जैसे जीवन डोर
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
कभी चूड़ी बजाती है कभी पायल बजाती है । नई दुल्हन सुनों अक्सर सभी के मन लुभाती है । मगर अन्जान है प्रियतम उसी झंकार से अब तक - जिसे निशिदिन इशारों में वही धड़कन सुनाती है ।। २०/०२/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR कभी चूड़ी बजाती है कभी पायल बजाती है । नई दुल्हन सुनों अक्सर सभी के मन लुभाती है । मगर अन्जान है प्रियतम उसी झंकार से अब तक - जिसे
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विधा मुक्तक आता है निशिदिन निधिवन में , लेकिन वह शोर नहीं करता । गोकुल की उन गलियों में अब,क्या वह सुन रास नहीं करता । यह बात आज है जग जाहिर , वह माखन चोर पुराना है- लेकिन भव सागर को कोई , बिन उसके पार नहीं करता ।। ०४/०९/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR विधा मुक्तक आता है निशिदिन निधिवन में , लेकिन वह शोर नहीं करता । गोकुल की उन गलियों में अब,क्या वह सुन रास नहीं करता । यह बात आज है जग
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एक,, अंजुली भर,, समय जीवन का,, मृत्यु-पहिए संग,, है निरंतर अग्रसर,, अंतिम पथ,, पर..।। #बोध_रहस्य जन्म के पश्चात् जो जीवन मिलता है वह कुछ क्षणों का ही रहता है.. और वह भी मृत्यु के पहिए पर सवार हो निशिदिन प्रतिपल अपने अंतिम पथ
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
कुण्डलिया बोली मीठी संग हो , उसपे थोडा ज्ञान । बन सकता दुष्ट भी , इस जग में इंसान ।। इस जग में इंसान , वही देखो कहलाता । जो औरो के काम , यहां है निशिदिन आता ।। बाटे सब में प्रेम , न मारे फिर वह गोली । बतलाते त्योहार , करो सब मीठी बोली ।। ०८/०३/२०२४ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR कुण्डलिया बोली मीठी संग हो , उसपे थोडा ज्ञान । बन सकता दुष्ट भी , इस जग में इंसान ।। इस जग में इंसान , वही देखो कहलाता । जो औरो के काम ,
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
दो रोटी की सुनो कहानी । व्यर्थ बहाता निशिदिन पानी ।। पाप पुन्य सूझे अब कैसे। पास चाहिए थे कुछ पैसे ।। करता रहा नित्य मनमानी । व्यर्थ बहाया हमने पानी ।। हमने जिसकी कदर न जानी । बहता बन आँखों से पानी ।। अभी समय हो सोचो भइया । सूख गई सुनो तलाईया ।। बात कहूँ मैं बिल्कुल सच्ची । समझो मुन्ना मुनिया बच्ची ।। १३/०५/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR दो रोटी की सुनो कहानी । व्यर्थ बहाता निशिदिन पानी ।। पाप पुन्य सूझे अब कैसे। पास चाहिए थे कुछ पैसे ।। करता रहा नित्य मनमानी । व्यर्थ बहाया ह
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चुभते होगें भी वहां , निशिदिन उसको शूल । फिर भी उपवन में वही , प्यारा सबसे फूल ।। सुख दुख में देते सभी , सुंदर फूल गुलाब । जिसका बागों में नही , कौई और जवाब ।। उपमा देते हैं सभी , राजा लगे गुलाब । उसके सम्मुख सब दिखे , मुझको बहता आब । बागों की शोभा बढे , जिसमे लगे गुलाब । मधुवन से होता नही , इसका कभी हिसाब ।। ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR चुभते होगें भी वहां , निशिदिन उसको शूल । फिर भी उपवन में वही , प्यारा सबसे फूल ।। सुख दुख में देते सभी , सुंदर फूल गुलाब । जिसका बागों में
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
गीत :- सरसी विधा तुमसे पावन कौन यहाँ माँ , जिसका लूँ मैं नाम । छूकर चरण तुम्हारे अब मैं , निशिदिन करूँ प्रणाम ।। तुमसे पावन कौन यहाँ माँ ..... तुमने जन्म दिया है मुझको , तुम ही दो वरदान । तेरा ही इस जीवन में तो , करता हूँ गुणगान ।। पड़ा रहूँगा शरण तुम्हारें , देना थोडा़ ध्यान । छूकर चरण तुम्हारे अब मैं..... बहती रहती निर्मल शीतल , गंगा जिसका नाम । बाँह पसारे द्वार खड़े सब , कर दो पूरन काम ।। मेरा तो बस एक ठिकाना , माँ है तेरा धाम । छूकर चरण तुम्हारे अब मैं ....... भूल हुई जो माफ करो माँ , करो अरज स्वीकार । फूले फले सभी के आँगन , सुखी रहे संसार ।। आज मनाता दास तुम्हें यह , लेकर तेरा नाम । छूकर चरण तुम्हारे अब मैं .... तुमसे पावन कौन यहाँ माँ , लूँ मैं जिसका नाम । छूकर चरण तुम्हारे अब मैं , निशिदिन करूँ प्रणाम ।। २७/०५/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गीत :- सरसी विधा तुमसे पावन कौन यहाँ माँ , जिसका लूँ मैं नाम । छूकर चरण तुम्हारे अब मैं , निशिदिन करूँ प्रणाम ।। तुमसे पावन कौन यहाँ माँ
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कोरे-कोरे स्वप्न हमारे , रंगो अब गोपाल । थोडी प्रीति उधारी ले लो , थोडा और गुलाल । मैं भी स्वप्न सजाऊँ तेरे , लेकर तेरा नाम - आकर जब रंगो तुम मेरे , गोरे-गोरे गाल ।। कितने दिन से प्रीति हमारी , करती रही सवाल । निशिदिन आते हो स्वप्नों में , कब तक करूँ मलाल । पनघट छूटा सखिया छूटी , छूटा यह संसार- अबकी फागुन में तुम आकर , मल दो गाल गुलाल ।। २७/०२/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR कोरे-कोरे स्वप्न हमारे , रंगो अब गोपाल । थोडी प्रीति उधारी ले लो , थोडा और गुलाल । मैं भी स्वप्न सजाऊँ तेरे , लेकर तेरा नाम - आकर