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*Nee₹
कुछ बारिश की बूंदें और मेघों की गड़़गड़ाहट कुछ परदेस के परींदे और पपीहे की चहचहाट कुछ कलियों के फीते और भवरों की गुनगुनाहट कुछ हवा के झोंके और पत्तों की सरसराहट कुछ सिसकता दिल मेरा और ज़रा सी ख़ामोशी.. #मौन #सेतु #भाषा #YourQuoteAndMine Collaborating with Anuup Kamal Agrawal तेरे मेरे मौन के बीच कौन सी भाषा बनेगी सेतु ---------------
AB
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः। निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥ अर्थात- जिनका कण्ठ नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के समान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमें सभी प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करें,! ll 🌸ll ॐ नमः शिवाय ll🌸ll ___________________________________________________ नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिश
Vandana
"पतझड़ में सूखे पत्तों से भरी साँझ लाल सुर्ख सूरज से ढके आसमां के तले, मध्यम मेघों की रवानगी, सायं सायं हवाओं की दीवानगी, वीरांगना बन खामोशी से मिल रही, अद्भुत प्रेम से भरे एहसासों की टोकरी, महसूस होती सांसों में,'बूंद बूंद घुल रही, जो अंधेरे को पी रही घुंट घुंट, समा रही जो मुझ में,परम तत्व से भरी, कोई लहर, "पतझड़ में सूखे पत्तों से भरी साँझ लाल सुर्ख सूरज से ढके आसमां के तले, मध्यम मेघों की रवानगी, सायं सायं हवाओं की दीवानगी, वीरांगना बन खाम
Ganesh Singh Jadaun
मेरे मन का गीत हो प्रिय तुम, कैसे तुम पर गीत लिखूं थिरक उठें जिस पर पग तेरे, शब्दों में संगीत लिखूं नीरव निर्जन वन में जैसे, मधुर कोकिला कूकी हो विकल पराजित क्षुब्ध हृदय में, जैसे पीड़ा हूकी हो सूने मन के उपवन में, मधुकर का संगीत लिखूं झूम उठोगे तुम भी सुनकर , ऐसा तुम पर गीत लिखूं सूखे मन के मरुथल में, जैसे मेघा बरसे हों पनघट को लखकर ,प्यासे के जैसे नैना तरसे हों भीषण ग्रीषम के मौसम में, बूंदों का संगीत लिखूं मेघों की बाट जोहते , चातक की मैं प्रीत लिखूं मेरे मन का गीत हो प्रिय तुम कैसे तुम पर गीत लिखूं थिरक उठें जिस पर पग तेरे, शब्दों में संगीत लिखूं ____©®गणेश'सिंह'जादौन मेरे #मन_का_गीत हो प्रिय तुम, कैसे तुम पर गीत लिखूं थिरक उठें जिस पर पग तेरे, शब्दों में संगीत लिखूं नीरव निर्जन वन में जैसे, मधुर कोकिला
Anita Saini
चाँदी से चमकते पहाड़ बर्फ़ की चूनर ओढ़े लग रहे जैसे स्वर्ग की अप्सराओं के आसन... बाकी अनुशीर्षक में–– लग रहा जैसे ख़्वाबगाह में बैठी हो दुल्हन सिर झुकाए निःशब्द..! इंतज़ार में पिया के.. चाँदी से चमकते
vasundhara pandey
तुम कहीं भी हो मैं बस तुम्हारी! तुम कहीं भी हो मैं बस तुम्हारी वो समर्पण तब और था ये समर्पण अब बढ़ के है प्रीत की बाती के पी दीप अब बढ़ के हैं धीर तुम मौन हो किन्तु शक्ति के
N S Yadav GoldMine
है वासुदेव श्रीकृष्ण इसका यह मुख हिंसक जन्तुओं द्वारा आधा खा लिया गया है पढ़िए महाभारत !! 🙏🙏 महाभारत: स्त्री पर्व एकोनविंष अध्याय: श्लोक 1-17 {Bolo Ji Radhey Radhey} 📜 गान्धारी बोलीं- माधव। यह मेरा पुत्र विकर्ण, जो विद्वानों द्वारा सम्मानित होता था, भूमि पर मरा पड़ा है। भीमसेन ने इसके भी सौ-सौ टुकड़े कर डाले हैं। मधुसूदन। जैसे शरतकाल में मेघों की घटा से घिरा हुआ चन्द्रमा शोभा पा रहा है, उस प्रकार भीम द्वारा मारा गया विकर्ण हाथियों की सेना के बीच में सो रहा है। 📜 बराबर धनुष लिये रहने से इसकी विशाल हथेली में घट्ठा पड़ गया है। इसके हाथों में इस समय भी दस्ताना बंधा हुआ है; इसलिये इसे खाने की इच्छा बाले गीध बड़ी कठिनाई से किसी किसी तरह काट पाते हैं। माधव। उसकी तपस्विनी पत्नी जो अभी बालिका है, मांस लोलोप गीधों और कौओं को हटाने की निरंतर चेष्टा करती है परंतु सफल नहीं हो पाती है। 📜 पुरुष प्रवर माधव। विकर्ण नवयुवक देवता के समान कांतिमान, शूरवीर, सुख में पला हुआ तथा सुख भोगने के योग्य ही था; परंतु आज धूल में लोट रहा है। युद्ध में कर्णी, नालीक और नाराचों के प्रहार से इसके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये हैं तो भी इस भरतभूषण वीर को अभी तक लक्ष्मी (अंगकान्ति) छोड़ नहीं रही है। 📜 जो शत्रु समूहों का संहार करने वाला था, वह दुर्मुख प्रतिज्ञा पालन करने वाला संग्राम शूर भीमसेन के हाथों मारा जाकर समर में सम्मुख सो रहा है। तात् श्रीकृष्ण इसका यह मुख हिंसक जन्तुओं द्वारा आधा खा लिया गया है, इसलिये सप्तमी के चन्द्रमा की भांति सुशोभित हो रहा है। 📜 श्रीकृष्ण। देखो मेरे इस रणशूर पुत्र का मुख कैसा तेजस्वी है? पता नहीं, मेरा यह वीर पुत्र किस तरह शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर धूल फांक रहा है। सौम्य। युद्ध के मुहाने पर जिसके सामने कोई ठहर नहीं पाता था उस देवलोक विजयी दुर्मुख को शत्रुओं ने कैसे मार डाला? 📜 मधुसूदन। देखो, जो धनुर्धरों का आदर्श था वही यह धृतराष्ट्र का पुत्र चित्रसेन मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है। विचित्र माला और आभूषण धारण करने वाले उस चित्रसेन को घेरकर शोक से कातर हो रोती हुई युवतियां हिंसक जन्तुओं के साथ उसके पास बैठी हैं। 📜 श्रीकृष्ण। एक ओर स्त्रियों के रोने की आवाज है तो दूसरी ओर हिंसक जन्तुओं की गर्जना हो रही है। यह अद्भुत द्श्य मुझे विचित्र प्रतीत होता है । माधव। देखो, वह देवतुल्य नव-युवक विविंशति, जिसकी सुन्दरी स्त्रियां सदा सेवा किया करती थीं, आज विध्वस्त होकर धूल में पड़ा है। 📜 श्रीकृष्ण। देखो, बाणों से इसका कबच छिन्न-भिन्न हो गया है। युद्ध में मारे गये इस वीर विविंशति को गीध चारों ओर से घेरकर बैठे हैं । जो शूरवीर समरांगण में पाण्डवों की सेना के भीतर घुसकर लोहा लेता था, वही आज सत्पुरुषोचित वीरशैया पर शयन कर रहा है। 📜 श्रीकृष्ण। देखो, विविंशति का मुख अत्यंत उज्ज्वल है, इसके अधरों पर मुस्कराहट खेल रही है, नासिका मनोहर और भौहें सुन्दर हैं यह मुख चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा है। ©N S Yadav GoldMine #WoRaat है वासुदेव श्रीकृष्ण इसका यह मुख हिंसक जन्तुओं द्वारा आधा खा लिया गया है पढ़िए महाभारत !! 🙏🙏 महाभारत: स्त्री पर्व एकोनविंष अध्याय:
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माधव। यह मेरा पुत्र विकर्ण जो विद्वानों द्वारा सम्मानित होता था भूमि पर मरा पड़ा है पढ़िए महाभारत !! 🌅🌅महाभारत: स्त्री पर्व एकोनविंष अध्याय: श्लोक 1-17 {Bolo Ji Radhey Radhey} 📜 गान्धारी बोलीं- माधव। यह मेरा पुत्र विकर्ण, जो विद्वानों द्वारा सम्मानित होता था, भूमि पर मरा पड़ा है। भीमसेन ने इसके भी सौ-सौ टुकड़े कर डाले हैं। मधुसूदन। जैसे शरतकाल में मेघों की घटा से घिरा हुआ चन्द्रमा शोभा पा रहा है, उस प्रकार भीम द्वारा मारा गया विकर्ण हाथियों की सेना के बीच में सो रहा है। 📜 बराबर धनुष लिये रहने से इसकी विशाल हथेली में घट्ठा पड़ गया है। इसके हाथों में इस समय भी दस्ताना बंधा हुआ है इसलिये इसे खाने की इच्छा बाले गीध बड़ी कठिनाई से किसी किसी तरह काट पाते हैं। माधव। उसकी तपस्विनी पत्नी जो अभी बालिका है, मांस लोलोप गीधों और कौओं को हटाने की निरंतर चेष्टा करती है परंतु सफल नहीं हो पाती है। 📜 पुरुष प्रवर माधव। विकर्ण नवयुवक देवता के समान कांतिमान, शूरवीर, सुख में पला हुआ तथा सुख भोगने के योग्य ही था; परंतु आज धूल में लोट रहा है। युद्ध में कर्णी, नालीक और नाराचों के प्रहार से इसके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये हैं तो भी इस भरतभूषण वीर को अभी तक लक्ष्मी (अंगकान्ति) छोड़ नहीं रही है। 📜 जो शत्रु समूहों का संहार करने वाला था, वह दुर्मुख प्रतिज्ञा पालन करने वाला संग्राम शूर भीमसेन के हाथों मारा जाकर समर में सम्मुख सो रहा है। तात् श्रीकृष्ण इसका यह मुख हिंसक जन्तुओं द्वारा आधा खा लिया गया है, इसलिये सप्तमी के चन्द्रमा की भांति सुशोभित हो रहा है। 📜 श्रीकृष्ण। देखो मेरे इस रणशूर पुत्र का मुख कैसा तेजस्वी है? पता नहीं, मेरा यह वीर पुत्र किस तरह शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर धूल फांक रहा है। सौम्य। युद्ध के मुहाने पर जिसके सामने कोई ठहर नहीं पाता था उस देवलोक विजयी दुर्मुख को शत्रुओं ने कैसे मार डाला? मधुसूदन। 📜 देखो, जो धनुर्धरों का आदर्श था वही यह धृतराष्ट्र का पुत्र चित्रसेन मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है। विचित्र माला और आभूषण धारण करने वाले उस चित्रसेन को घेरकर शोक से कातर हो रोती हुई युवतियां हिंसक जन्तुओं के साथ उसके पास बैठी हैं। 📜 श्रीकृष्ण। एक ओर स्त्रियों के रोने की आवाज है तो दूसरी ओर हिंसक जन्तुओं की गर्जना हो रही है। यह अद्भुत द्श्य मुझे विचित्र प्रतीत होता है। माधव। देखो, वह देवतुल्य नव-युवक विविंशति, जिसकी सुन्दरी स्त्रियां सदा सेवा किया करती थीं, आज विध्वस्त होकर धूल में पड़ा है। 📜 श्रीकृष्ण। देखो, बाणों से इसका कबच छिन्न-भिन्न हो गया है। युद्ध में मारे गये इस वीर विविंशति को गीध चारों ओर से घेरकर बैठे हैं। जो शूरवीर समरांगण में पाण्डवों की सेना के भीतर घुसकर लोहा लेता था, वही आज सत्पुरुषोचित वीरशैया पर शयन कर रहा है। 📜 श्रीकृष्ण। देखो, विविंशति का मुख अत्यंत उज्ज्वल है, इसके अधरों पर मुस्कराहट खेल रही है, नासिका मनोहर और भौहें सुन्दर हैं यह मुख चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा है। ©N S Yadav GoldMine #rush माधव। यह मेरा पुत्र विकर्ण जो विद्वानों द्वारा सम्मानित होता था भूमि पर मरा पड़ा है पढ़िए महाभारत !! 🌅🌅महाभारत: स्त्री पर्व एकोनविं
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{Bolo Ji Radhey Radhey} उत्तर कांड:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे। सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा आदि देवों को प्रणाम कर हनुमान जी ने समुद्र लंघन का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने शरीर को असीमित रूप से बढ़ा लिया। उस समय वे अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने साथी वानरों से कहा, हे मित्रों! जैसे श्री रामचन्द्र जी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है वैसे ही तीव्र गति से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को बाँध कर रामचन्द्र जी के चरणों में लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं सर्वथा कृतकृत्य होकर ही सीता के साथ लौटूँगा अन्यथा रावण सहित लंकापुर को ही उखाड़ कर लाउँगा। इतना कह कर हनुमान आकाश में उछले और अत्यन्त तीव्र गति से लंका की ओर चले। उनके उड़ते ही उनके झटके से साल आदि अनेक वृक्ष पृथ्वी से उखड़ गये और वे भी उनके साथ उड़ने लगे। फिर थोड़ी दूर तक उड़ने के पश्चात् वे वृक्ष एक-एक कर के समुद्र में गिरने लगे। वृक्षों से पृथक हो कर सागर में गिरने वाले नाना प्रकार के पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो शरद ऋतु के नक्षत्र जल की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। तीव्र गति से उड़ते हुए महाकपि पवनसुत ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे कि वे महासागर एवं अनन्त आकाश का आचमन करते हुये उड़े जा रहे हैं। तेज से जाज्वल्यमान उनके नेत्र हिमालय पर्वत पर लगे हुये दो दावानलों का भ्रम उत्पन्न करते थे। कुछ दर्शकों को ऐसा लग रहा था कि आकाश में तेजस्वी सूर्य और चन्द्र दोनों एक साथ जलनिधि को प्रकाशित कर रहे हों। उनका लाल कटि प्रदेश पर्वत के वक्षस्थल पर किसी गेरू के खान का भ्रम पैदा कर रहा था। हनुमान के बगल से जो तेज आँधी भारी स्वर करती हुई निकली थी वह घनघोर वर्षाकाल की मेघों की गर्जना सी प्रतीत होती थी। आकाश में उड़ते हये उनके विशाल शरीर का प्रतिबम्ब समुद्र पर पड़ता था तो वह उसकी लहरों के साथ मिल कर ऐसा भ्रम उत्पन्न करता था जैसे सागर के वक्ष पर कोई नौका तैरती चली जा रही हो। इस प्रकार हनुमान निरन्तर आकाश मार्ग से लंका की ओर बढ़े जा रहे थे। हनुमान के अद्भुत बल और पराक्रम की परीक्षा करने के लिये देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षियों ने नागमाता सुरसा के पास जा कर कहा, हे नागमाता! तुम जा कर वायुपुत्र हनुमान की यात्रा में विघ्न डाल कर उनकी परीक्षा लो कि वे लंका में जा कर रामचन्द्र का कार्य सफलता पूर्वक कर पायेंगे या नहीं। ऋषियों के मर्म को समझ कर सुरसा विशालकाय राक्षसनी का रूप धारण कर के समुद्र के मध्य में जा कर खड़ी हो गई और उसने अपने रूप को अत्यन्त विकृत बना लिया। हनुमान को अपने सम्मुख पा कर वह बोली, आज मैं तुम्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा को शान्त करूँगी। मैं चाहती हूँ, तुम स्वयं मेरे मुख में प्रवेश करो ताकि मुझे तुम्हें खाने के लिये प्रयत्न न करना पड़े। सुरसा के शब्दों को सुन कर हनुमान बोले, तुम्हारी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु इस समय मैं अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र जी के कार्य से जा रहा हूँ। उनकी पत्नी को रावण चुरा कर लंका ले गया है। मैं उनकी खोज करने के लिये जा रहा हूँ तुम भी राम के राज्य में रहती हो, इसलिये इस कार्य में मेरी सहायता करना तुम्हारा कर्तव्य है। लंका से मैं जब अपना कार्य सिद्ध कर के लौटूँगा, तब अवश्य तुम्हारे मुख में प्रवेश करूँगा। यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ। हनुमान की प्रतिज्ञा पर ध्यान न देते हुये सुरसा बोली, जब तक तुम मेरे मुख में प्रवेश न करोगे, मैं तुम्हारे मार्ग से नहीं हटूँगी। यह सुन कर हनुमान बोले, अच्छा तुम अपने मुख को अधिक से अधिक खोल कर मुझे निगल लो। मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश करने को तैयार हूँ। यह कह कर महाबली हनुमान ने योगशक्ति से अपने शरीर का आकार बढ़ा कर चालीस कोस का कर लिया। सुरसा भी अपू्र्व शक्तियों से सम्पन्न थी। उसने तत्काल अपना मुख अस्सी कोस तक फैला लियाा हनुमान ने अपना शरीर एक अँगूठे के समान छोटा कर लिया और तत्काल उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये। फिर बोले, अच्छा सुरसा, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई अब मैं जाता हूँ। प्रणाम! इतना कह कर हनुमान आकाश में उड़ गये। पवनसुत थोड़ी ही दूर गये थे कि सिंहिका नामक राक्षसनी की उन पर दृष्टि पड़ी। वह हनुमान को खाने के लिये लालयित हो उठी। वह छाया ग्रहण विद्या में पारंगत थी। जिस किसी प्राणी की छाया पकड़ लेती थी, वह उसके बन्धन में बँधा चला आता था। जब उसने हनुमान की छाया को पकड़ लिया तो हनुमान की गति अवरुद्ध हो गई। उन्होंने आश्चर्य से सिंहिका की ओर देखा। वे समझ गये, सुग्रीव ने जिस अद्भुत छायाग्राही प्राणी की बात कही थे, सम्भवतः यह वही है। यह सोच कर उन्होंने योगबल से अपने शरीर का विस्तार मेघ के समान अत्यन्त विशाल कर लिया। सिंहिंका ने भी अपना मुख तत्काल आकाश से पाताल तक फैला लिया और गरजती हई उनकी ओर दौड़ी। यह देख कर हनुमान अत्यन्त लघु रूप धारण करके उसके मुख में जा गिरे और अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को फाड़ डाला। इसके पश्चात् बड़ी फुर्ती से बाहर निकल कर आकाश की ओर उड़ चले। राक्षसनी क्षत-विक्षत हो कर समुद्र में गिर पड़ी और मर गई। ©N S Yadav GoldMine #Childhood {Bolo Ji Radhey Radhey} उत्तर कांड:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय मे
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{Bolo Ji Radhey Radhey} हनुमानजी का सागर पार करना:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे। सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा आदि देवों को प्रणाम कर हनुमान जी ने समुद्र लंघन का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने शरीर को असीमित रूप से बढ़ा लिया। उस समय वे अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने साथी वानरों से कहा, हे मित्रों! जैसे श्री रामचन्द्र जी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है वैसे ही तीव्र गति से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को बाँध कर रामचन्द्र जी के चरणों में लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं सर्वथा कृतकृत्य होकर ही सीता के साथ लौटूँगा अन्यथा रावण सहित लंकापुर को ही उखाड़ कर लाउँगा। इतना कह कर हनुमान आकाश में उछले और अत्यन्त तीव्र गति से लंका की ओर चले। उनके उड़ते ही उनके झटके से साल आदि अनेक वृक्ष पृथ्वी से उखड़ गये और वे भी उनके साथ उड़ने लगे। फिर थोड़ी दूर तक उड़ने के पश्चात् वे वृक्ष एक-एक कर के समुद्र में गिरने लगे। वृक्षों से पृथक हो कर सागर में गिरने वाले नाना प्रकार के पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो शरद ऋतु के नक्षत्र जल की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। तीव्र गति से उड़ते हुए महाकपि पवनसुत ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे कि वे महासागर एवं अनन्त आकाश का आचमन करते हुये उड़े जा रहे हैं। तेज से जाज्वल्यमान उनके नेत्र हिमालय पर्वत पर लगे हुये दो दावानलों का भ्रम उत्पन्न करते थे। कुछ दर्शकों को ऐसा लग रहा था कि आकाश में तेजस्वी सूर्य और चन्द्र दोनों एक साथ जलनिधि को प्रकाशित कर रहे हों। उनका लाल कटि प्रदेश पर्वत के वक्षस्थल पर किसी गेरू के खान का भ्रम पैदा कर रहा था। हनुमान के बगल से जो तेज आँधी भारी स्वर करती हुई निकली थी वह घनघोर वर्षाकाल की मेघों की गर्जना सी प्रतीत होती थी। आकाश में उड़ते हये उनके विशाल शरीर का प्रतिबम्ब समुद्र पर पड़ता था तो वह उसकी लहरों के साथ मिल कर ऐसा भ्रम उत्पन्न करता था जैसे सागर के वक्ष पर कोई नौका तैरती चली जा रही हो। इस प्रकार हनुमान निरन्तर आकाश मार्ग से लंका की ओर बढ़े जा रहे थे। हनुमान के अद्भुत बल और पराक्रम की परीक्षा करने के लिये देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षियों ने नागमाता सुरसा के पास जा कर कहा, हे नागमाता! तुम जा कर वायुपुत्र हनुमान की यात्रा में विघ्न डाल कर उनकी परीक्षा लो कि वे लंका में जा कर रामचन्द्र का कार्य सफलता पूर्वक कर पायेंगे या नहीं। ऋषियों के मर्म को समझ कर सुरसा विशालकाय राक्षसनी का रूप धारण कर के समुद्र के मध्य में जा कर खड़ी हो गई और उसने अपने रूप को अत्यन्त विकृत बना लिया। हनुमान को अपने सम्मुख पा कर वह बोली, आज मैं तुम्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा को शान्त करूँगी। मैं चाहती हूँ, तुम स्वयं मेरे मुख में प्रवेश करो ताकि मुझे तुम्हें खाने के लिये प्रयत्न न करना पड़े। सुरसा के शब्दों को सुन कर हनुमान बोले, तुम्हारी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु इस समय मैं अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र जी के कार्य से जा रहा हूँ। उनकी पत्नी को रावण चुरा कर लंका ले गया है। मैं उनकी खोज करने के लिये जा रहा हूँ तुम भी राम के राज्य में रहती हो, इसलिये इस कार्य में मेरी सहायता करना तुम्हारा कर्तव्य है। लंका से मैं जब अपना कार्य सिद्ध कर के लौटूँगा, तब अवश्य तुम्हारे मुख में प्रवेश करूँगा। यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ। हनुमान की प्रतिज्ञा पर ध्यान न देते हुये सुरसा बोली, जब तक तुम मेरे मुख में प्रवेश न करोगे, मैं तुम्हारे मार्ग से नहीं हटूँगी। यह सुन कर हनुमान बोले, अच्छा तुम अपने मुख को अधिक से अधिक खोल कर मुझे निगल लो। मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश करने को तैयार हूँ। यह कह कर महाबली हनुमान ने योगशक्ति से अपने शरीर का आकार बढ़ा कर चालीस कोस का कर लिया। सुरसा भी अपू्र्व शक्तियों से सम्पन्न थी। उसने तत्काल अपना मुख अस्सी कोस तक फैला लियाा हनुमान ने अपना शरीर एक अँगूठे के समान छोटा कर लिया और तत्काल उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये। फिर बोले, अच्छा सुरसा, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई अब मैं जाता हूँ। प्रणाम! इतना कह कर हनुमान आकाश में उड़ गये। पवनसुत थोड़ी ही दूर गये थे कि सिंहिका नामक राक्षसनी की उन पर दृष्टि पड़ी। वह हनुमान को खाने के लिये लालयित हो उठी। वह छाया ग्रहण विद्या में पारंगत थी। जिस किसी प्राणी की छाया पकड़ लेती थी, वह उसके बन्धन में बँधा चला आता था। जब उसने हनुमान की छाया को पकड़ लिया तो हनुमान की गति अवरुद्ध हो गई। उन्होंने आश्चर्य से सिंहिका की ओर देखा। वे समझ गये, सुग्रीव ने जिस अद्भुत छायाग्राही प्राणी की बात कही थे, सम्भवतः यह वही है। यह सोच कर उन्होंने योगबल से अपने शरीर का विस्तार मेघ के समान अत्यन्त विशाल कर लिया। सिंहिंका ने भी अपना मुख तत्काल आकाश से पाताल तक फैला लिया और गरजती हई उनकी ओर दौड़ी। यह देख कर हनुमान अत्यन्त लघु रूप धारण करके उसके मुख में जा गिरे और अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को फाड़ डाला। इसके पश्चात् बड़ी फुर्ती से बाहर निकल कर आकाश की ओर उड़ चले। राक्षसनी क्षत-विक्षत हो कर समुद्र में गिर पड़ी और मर गई। ©N S Yadav GoldMine {Bolo Ji Radhey Radhey} हनुमानजी का सागर पार करना:- बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए महेन्द्र पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाश