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Gaurav Mishra
Nisheeth pandey
तेरे मेरे गुलाब के फूल छू गए जब प्यासे होठ तेरे मेरे सुगन्ध जाने कैसी मन में बस गयी सारा जग तुम्हारी मुस्कान सी लगने लग गयी । नींद में खिले बेला टूटे नींद तो महके चमेली, नाचती पंखों से झरे मालती अंग-अंग छुए जुही जुली पग-पग बहके बाबरा , डगर-डगर गाये भँवरा तुम जब मिले तो मीले इस तरह हमसे जैसे बेसुरी ज़िन्दगी गाने लगे मल्हार । तेरे मेरे गुलाब के फूल... तुम्हारे होंठ मेरे होंठ को चूमने की शैतानियां कर ऐसा मुग्ध कर गई मन को हरी हो गई तन्हा मन की बंजर घाटी खोने की बात न छेड़ों जुदाई की करो न चर्चा याद उसकी मन में हो तो पतछड़ भी लगे बसंत बहार। तेरे मेरे गुलाब के फूल... तुम्हें चाह क्या लिया कि तुम्हें सोच सोच जीने लगा तुम्हें देखने को तरसने लगा जीने की आस तेरी सूरत दिखने लगी तुम जब आयी थी जुड़ा बनाकर हमने चुपके से लगाया गुलाब जुड़े में तुम्हारे , बन गई चित्र की कोई कृति क्या देखूं अब बगीचे में फूल, कैसे फिराउँ हाथ पंखुड़ियों पर सिर्फ तुम्हारे लिये जीने लगा, सिर्फ तुम्हारे लिये मरने लगा । दो गुलाब के फूल.. #निशीथ ©Nisheeth pandey तेरे मेरे गुलाब के फूल छू गए जब प्यासे होठ तेरे मेरे सुगन्ध जाने कैसी मन में बस गयी सारा जग तुम्हारी मुस्कान सी लगने लग गयी । नींद में ख
Bhavana kmishra
आप सभी को विजय दिवस की शुभकामनाएं.. मै केशव का पाञ्चजन्य हूँ गहन मौन मे खोया हूं, उन बेटो की याद कहानी लिखते-लिखते रोया हूं जिन माथे की कंकुम बिंदी वापस लौट नहीं पाई चुटकी, झुमके पायल ले गई कुर्वानी की अमराई कुछ बहनों की राखी जल गई है बर्फीली घाटी में वेदी के गठबंघन मिल गये हैं सीमा की माटी में पर्वत पर कितने सिंदूरी सपने दफन हुए होंगे बीस बसंतों के मधुमासी जीवनहरण हुए होंगे टूटी चूडी, धुला महावर, रूठा कंगन हाथों का कोई मोल नहीं दे सकता बासंती जज्बातों का जो पहले-पहले चुम्बन के बादलाम पर चला गया नई दुल्हन की सेज छोडकर युद्ध काम पर चला गया उसको भी मीठी नीदों की करवट याद रही होगी खुशबू में डूबी यादों की सलवट याद रही होगी उन आखों की दो बूंदों से सातों सागर हारे हैं जब मेंहदी वाले हाथों ने मंगलसूत्र उतारे हैं गीली मेंहदी रोई होगी छुप के घर के कोने में ताजा काजल छूटा होगा चुपके चुपके रोने में जब बेटे की अर्थी आई होगी सूने आंगन में.. शायद दूध उतर आया हो बूढी मां के दामन में वो विधवा पूरी दुनिया का बोझा सर ले सकती है, जो अपने पती की अर्थी को भी कंधा दे सकती है मै ऐसी हर देवी के चरणो मे शीश झुकाता हूं, इसिलिये मे कविता को हथियार बना कर गाता हूं जो सैनिक सीमा रेखा पर ध्रुव तारा बन जाता है, उस कुर्बानी के दीपक से सूरज भी शरमाता है गरम दहानो पर तोपो के जो सीने आ जाते है, उनकी गाथा लिखने को अम्बर छोटे पड जाते है उनके लिये हिमालय कंधा देने को झुक जाता है कुछ पल को सागर की लहरो का गर्जन रुक जाता है उस सैनिक के शव का दर्शन तीरथ जैसा होता है, चित्र शहीदो का मंदिर की मूरत जैसा होता है जिन बेटो ने पर्वत काटे है अपने नाखूनो से, उनकी कोई मांग नही है दिल्ली के कानूनो से सेना मर-मर कर पाती है, दिल्ली सब खो देती है….. और शहीदों के लौहू को, स्याही से धो देती है…… मैं इस कायर राजनीति से बचपन से घबराता हूँ….. इसीलिए मैं कविता को हथियार बनाकर गाता हूँ।। # हरिओम पंवार जी (कवि) ©Bhavana kmishra #कारगिल विजय दिवस आप सभी को विजय दिवस की शुभकामनाएं.. मै केशव का पाञ्चजन्य हूँ गहन मौन मे खोया हूं, उन बेटो की याद कहानी लिखते-लिखते रोया
नवीन बहुगुणा(शून्य)
Swapnil Parab
Tarveen Singh