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Parasram Arora
कोई पुरखो को पानी पहुंचा रहा हैँ कोइ गंगाओ मे पाप धो रहा हैँ कोई पथर की प्रतिमाओं के सामने बिना भाव सर झुकाये बैठा हैँ धर्म के नाम पर हज़ार तरह की मूढ़ताएं प्रचलन मे हैँ धर्म से संबंध तो तब होता हैँ जब आदमी जागरण की गुणवत्ता हासिल कर लेता हैँ जहाँ जागरण होगा वहा अशांति कभी हो ही नहीं सकती क्यों कि जाग्रत आदमी विवेकी होता हैँ इर्षा क्रोध की वृतियो से ऊपर उठ चुका होता हैँ औदेखा जाय तो धर्म औऱ शांति पर्यायवाची शब्द हैँ धर्म औऱ शांति...... पर्यायवाची शब्द हैँ
vinayak kumar pandey
यह जीवन क्या है ? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है । सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है । कब फूटा गिरि के अंतर से ? किस अंचल से उतरा नीचे ? किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे ? निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है ! धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है । बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता, बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता । लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है । तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है । निर्झर कहता है, बढ़े चलो ! देखो मत पीछे मुड़ कर ! यौवन कहता है, बढ़े चलो ! सोचो मत होगा क्या चल कर ? चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है ! रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है ! ©vinayak kumar pandey जीवन का झरना
Parasram Arora
जीवन दर्द का झरना है ज़ो भी जीते हैँ दर्दभोगते हैँ और दर्द भोगते भोगते ही उन्हे मरना है ©Parasram Arora दर्द का झरना...
NEERAJ SIINGH
इश्क यूं झलझला के चल पड़ा , जैसे झरनो सी गिरता कोई ख्वाब जैसे मचलता कोई रुआब जैसे समझता कोई जवाब जैसे आखों के सामने से गुजरता हर दिन का एक हिसाब, जिसमें जितना जो हैं समेट लो क्योंकी नही रहता, एक सा दिन और एक सा बहाव बात मोहब्ब्त की जो जा ठहरी , चल झरनो सा बेहिसाब.. #neerajwrites इश्क का झरना
Parasram Arora
खून को पानी का पर्यायवाची मत मान. लेना अनुभन कितना भी कटु क्यों न हो वो.कभी कहानी नही बन सकताहै उस बसती मे सच बोलने का रिवाज नही है यहां कोई भी आदमी सच.को झूठ बना कर पेश कर सकता है ताउम्र अपना वक़्त दुसरो की भलाई मे खर्च करता रहा वो ऐसा आदमी कुछ पल का वक़्त भी अपने लिये निकाल नही सकता है ©Parasram Arora पर्यायवाची......
manoj kumar jha"Manu"
धरती का दुःख क्यों, समझते नहीं तुम। धरा न रही अगर, तो रहोगे नहीं तुम।। सुधा दे रही है वसुधा हमें तो, भू को न बचाया, तो बचोगे नहीं तुम।। "भूमि हमारी माता, हम पृथिवी के पुत्र"* वेदवाणी कह रही, क्या कहोगे नहीं तुम।। (स्वरचित) * माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: (अथर्ववेद १२/१/१२) धरती का दुःख हम नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा। इसमें धरती के पर्यायवाची शब्द भी हैं।