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Penman
मैं तेरे परिवेश में सुरक्षित हूं, मां मैं तेरी दुआओं के साथ रहता हूं। ©Tarun RAJPUt #परिवेश
गुनेश्वर
तुम कैसे बुनोगी महीन शब्दों का जाल तुम कर्तव्यनिष्ठा की जिजीविषा से ओतप्रोत हो और व्यवस्था तर्जनी के संस्कारों में आकंठ डूबा हुआ है क्या तुम हलाहल पी पाओगी ? तुम्हारी परवरिश खिलखिलाने के प्रवाह में प्रफुल्लित हुई है कोशिश करना हलाहल अमृत कर पाओ पर घुटन की गंभीरता लिये नही चली आना जब भी ऐसा लगे अपने घर के उस पुराने प्रफुल्लित प्रवाह में अपना परिवेश
Ek villain
लोगों को कोविड-19 या वैज्ञानिक विरोधियों की पंत में ले जाकर खड़ा करने वाली कुछ और बातें भी है जैसे जब लोगों को यह शंका होती है कि वैक्सीन लेने के लिए पहचान के कागज की जरूरत है या सरकार उनकी निजी डेटा लेकर ट्रैकिंग तेज सिंह जैसा काम कर रही है तो वह झट से इस पूरी मुहिम के ही विरोधी बन जाते हैं इस तरह करो ना कि प्रसार को हम आने के लिए लगाए जाने वाले प्रतिबंधों से रोजगार प्रभावित होते हैं तब भी लोग इसका विरोध करने वालों की कतार में शामिल हो जाते हैं फिलहाल जर्मनी जैसे विकसित देश में इन सभी समस्याओं का एक बड़ा उदाहरण बना हुआ है जहां लोग सरकार के कोविड-19 टेस्टिंग और प्रवीण के दूरी विरोधी बने हुए हैं ऐसे 56 कारण गिनाए जा सकते हैं जिनके चलते लोग टीका या विज्ञान के खिलाफ कोई रुख अपना लेते हैं इस में पहले नंबर पर ही सामाजिक धार्मिक व राजनीतिक विचारधाराओं के प्रभाव है इनसे ही लोगों में किसी चीज के प्रति भरोसा या विश्वास पैदा होता है दूसरा है कि श्वेता मोबाइल कंप्यूटर तमाम दबावों और तकनीकों को अपनाने के पीछे प्रेरणा जगाने वाला मूलता तो यही है जनता को समझ में आ जाए इस चीज के बिना जिंदगी अधूरी है तीसरा धारण हर नई चीज के प्रति किसी षड्यंत्र को देखना जनता में डर या किसी किस्म की खूबियां मौजूदगी अक्सर रहती है जैसे इस वक्त दुनिया की एक बड़ी आबादी मानती है कि कोविड-19 वायरस या तो चीन की लैब से निकला है या फिर यह फॉर्म कंपनियों की शरारत है जो अपने फायदे के लिए इसे खत्म नहीं होने दे रही ©Ek villain # डर के परिवेश में षड्यंत्र को हवा#good #BookLife
Pushpendra Pankaj
मान के बदले में मान मिल जाए यह सौभाग्य है, आज कल के लोग बहुत संगदिल से हो गए । चौपालों पर बैठकर बातें,हसीन भोर,सुहानी रातें , नए पन की रोशनी में ,जाने कहाँ खो गए।। पुष्पेन्द्र "पंकज ©Pushpendra Pankaj #kitaab बदलता परिवेश
Usha bhadula
बदलता परिवेश न जाने क्यों कोई आशा दे जाते हैं फिर न जाने कहाँ गुम हो जाते हैं एक के बाद एक दूजा फिर नयी उम्मीद लाते हैं वो भी कहीं गलियारों में कहीं खो जाते हैं तोड़ के हम सारी हदें पार कर जाते हैं खाके ठोकरें लौट फिर घर को आते हैं क्यूँ हम अपनी संस्कृति को भूल जाते हैं तंग वस्त्र पहन खूब इठलाती हैं अंग्रेजी बोले जो उसे ही अपना दोस्त बनाते हैं हिंन्दुस्तान में रह हिंदी बोलने में शरमाते हैं न जाने क्यूँ हम स्वदेशी वस्तु लेने में हिचकिचाते हैं दो मिनट मंदिरों में जाने के बजाए हम देर रात तक क्लबों में समय बिताते हैं हर दिन माँ के हाथ के पकवान फीके बोल हम पीछा बर्गर खूब खा जाते हैं साथ में जूस की जगह जहर समान कोल्डड्रिंक पीते जाते हैं माँ बाप के लिए दो पल नहीं मगर फोन पर खूब बतियाते हैं न जाने क्यूँ खुद को भारतीय फिर बताते हैं। ©Usha bhadula #sadak बदलता परिवेश