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Shiv gopal awasthi
ऐसा पढ़ना भी क्या पढ़ना,मन की पुस्तक पढ़ न पाए, भले चढ़े हों रोज हिमालय,घर की सीढ़ी चढ़ न पाए। पता चला है बढ़े बहुत हैं,शोहरत भी है खूब कमाई, लेकिन दिशा गलत थी उनकी,सही दिशा में बढ़ न पाए। बाँट रहे थे मृदु मुस्कानें,मेरे हिस्से डाँट लिखी थी, सोच रहा था उनसे लड़ना ,प्रेम विवश हम लड़ न पाए। उनका ये सौभाग्य कहूँ या,अपना ही दुर्भाग्य कहूँ मैं, दोष सभी थे उनके लेकिन,उनके मत्थे मढ़ न पाए। थे शर्मीले हम स्वभाव से,प्रेम पत्र तक लिखे न हमने। चंद्र रश्मियाँ चुगीं हमेशा,सपनें भी हम गढ़ न पाए। कवि-शिव गोपाल अवस्थी ©Shiv gopal awasthi कविता
संदीप
*मीरा का विश्वास* मीरा संग जब हो 'विश्वास' तो क्यों करे वो देखो किसी से आस रिश्तों के अटूट बंधन में बंधकर, निभाए वो जीवन भर का साथ। पत्नी धर्म को निभाए हँसी-खुशी से फिर क्यों करे वो किसी पर विश्वास बिन मीरा संग विश्वास लगे अधुरा लगता है मन देखो जग में बेकार बिन मीरा के हर संयोग है अधुरा- विश्वास बेगैर होए ना सपना कोई पूरा अपने घर-आँगन को वा प्यार से सजाए दामन खुशियों का भर मन वा छा जाए हर सुख-दुःख में मीरा साथ निभाए फिर क्यों करे वो किसी से आस *संदीप कुमार'विश्वास'* ©संदीप कविता
"Hare Krishna "(कवि/गीतकार)
गिर गिर कर उठने कोशिश करते रहना है । चलना ही जीवन है प्यारे चलते रहना है ।। ©"Hare Krishna "(कवि/गीतकार) कविता
Shahid0007
Autumn गुलों के रास्ते में, कांटे तो आयेंगे ही, चुभेंगे पावों में,और दिल को दहलाएंगे भी, हो सकता है डर भी लगे,और मन कहे घर लौटने को मगर, ये कांटे ही गुलों तक पहुंचाएंगे भी 🙂 ©Shahid0007 #कविता
Arora PR
Blue Moon ये कविता यूँ ही नहीं कविता बन जाती. ये कविता उतरती है ह्रदय के कैनवास पर.... और आती है ब्रह्माण्ड के अनचीन्हे कोनो से परिंदो के पँख पर बैठ कर. ©Arora PR कविता
Jain Saroj
में थी और शायद तू भी… शायद एक सांस के फासले पर खड़ा शायद एक नज़र के अँधेरे पे बैठा शायद एहसास के एक मोड़ पर चल रहा पर वह पुराने-ऐतिहासिक समय की बात है ©Saroj Patwa #कविता
Gurudeen Verma
शीर्षक - अफसोस कि अब मुझको भी बदलना पड़ा जमाने के साथ -------------------------------------------------------------------- मैं अपने विचार, तरीकें और रास्तें, नहीं चाहता था बदलना, रहना चाहता था उसी अवस्था में, जिसमें इंसान को नहीं होती है, अंतर की समझ और चालाकी, एक बच्चे की तरह दुनिया की, मैं बाँटना चाहता था सबको, अपनी खुशी और सुख निःस्वार्थ, और हरना चाहता था मैं, सभी की तकलीफें और दर्द को, इसीलिए लिखता था खतो- कविता, सबकी खुशहाली के लिए ईश्वर को। देखता था मैं ख्वाब सभी के लिए, उनके आबाद और सुखी होने के, मैं याद करता था हररोज उनको, जिनसे मेरी मुलाकात हुई थी, जो बनते थे सहारा मेरी तकलीफ़ में, छटपटाता था मैं उनसे मिलने के लिए। ऐसे में कर लिया था निश्चय मैंने, उनको अपना सब कुछ अर्पण करने का, लेकिन किसी ने नहीं ली मेरी खैरो- खबर, परदेश में इतने वर्ष बीतने के बाद भी, अफसोस कि मुझको बदलना पड़ा, जमाने के साथ जमाने की तरह। शिक्षक एवं साहित्यकार गुरुदीन वर्मा उर्फ़ जी.आज़ाद तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान) ©Gurudeen Verma #कविता