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Shivangi
नित जल का तर्पण करते हो पर क्या दिल से कभी याद किया.. जो श्राद्ध में श्रद्धा नहीं तो जो किया सब बेबुनियाद किया।। पितृपक्ष के अनेक नियम कर्म होते हैं सिर्फ जल तर्पण कर देना ही श्राद्ध का आधार नहीं है। श्राद्ध विधि एक भावना है जो मन से निभाई जाती है अपने
पितृपक्ष के अनेक नियम कर्म होते हैं सिर्फ जल तर्पण कर देना ही श्राद्ध का आधार नहीं है। श्राद्ध विधि एक भावना है जो मन से निभाई जाती है अपने #yqbaba #philosophy #yqdidi #yqquotes #shivangiverma
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{Bolo Ji Radhey Radhey} अठारह महापुराणों में 'विष्णु पुराण' का आकार सबसे छोटा है। किन्तु इसका महत्व प्राचीन समय से ही बहुत अधिक माना गया है। संस्कृत विद्वानों की दृष्टि में इसकी भाषा ऊंचे दर्जे की, साहित्यिक, काव्यमय गुणों से सम्पन्न और प्रसादमयी मानी गई है। इस पुराण में भूमण्डल का स्वरूप, ज्योतिष, राजवंशों का इतिहास, कृष्ण चरित्र आदि विषयों को बड़े तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से यह पुराण मुक्त है। धार्मिक तत्त्वों का सरल और सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। सात हज़ार श्लोक :- इस पुराण में इस समय सात हज़ार श्लोक उपलब्ध हैं। वैसे कई ग्रन्थों में इसकी श्लोक संख्या तेईस हज़ार बताई जाती है। यह पुराण छह भागों में विभक्त है। प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका पहले भाग में सर्ग अथवा सृष्टि की उत्पत्ति, काल का स्वरूप और ध्रुव, पृथु तथा प्रह्लाद की कथाएं दी गई हैं। दूसरे भाग में लोकों के स्वरूप, पृथ्वी के नौ खण्डों, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष आदि का वर्णन है। तीसरे भाग में मन्वन्तर, वेदों की शाखाओं का विस्तार, गृहस्थ धर्म और श्राद्ध-विधि आदि का उल्लेख है। चौथे भाग में सूर्य वंश और चन्द्र वंश के राजागण तथा उनकी वंशावलियों का वर्णन है। पांचवें भाग में श्रीकृष्ण चरित्र और उनकी लीलाओं का वर्णन है जबकि छठे भाग में प्रलय तथा मोक्ष का उल्लेख है। 'विष्णु पुराण' में पुराणों के पांचों लक्षणों अथवा वर्ण्य-विषयों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन है। सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है। बीच-बीच में अध्यात्म-विवेचन, कलिकर्म और सदाचार आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। रचनाकार पराशर ऋषि :- इस पुराण के रचनाकार पराशर ऋषि थे। ये महर्षि वसिष्ठ के पौत्र थे। इस पुराण में पृथु, ध्रुव और प्रह्लाद के प्रसंग अत्यन्त रोचक हैं। 'पृथु' के वर्णन में धरती को समतल करके कृषि कर्म करने की प्रेरणा दी गई है। कृषि - व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने पर जोर दिया गया है। घर-परिवार, ग्राम, नगर, दुर्ग आदि की नींव डालकर परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है। इसी कारण धरती को 'पृथ्वी' नाम दिया गया। 'ध्रुव' के आख्यान में सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति आदि को क्षण भंगुर अर्थात् नाशवान समझकर आत्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा दी गई है। प्रह्लाद के प्रकरण में परोपकार तथा संकट के समय भी सिद्धांतों और आदर्शों को न त्यागने की बात कही गई है। कृष्ण चरित्र का वर्णन :- 'विष्णु पुराण' में मुख्य रूप से कृष्ण चरित्र का वर्णन है, यद्यपि संक्षेप में राम कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है। इस पुराण में कृष्ण के समाज सेवी, प्रजा प्रेमी, लोक रंजक तथा लोक हिताय स्वरूप को प्रकट करते हुए उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है। श्रीकृष्ण ने प्रजा को संगठन-शक्ति का महत्त्व समझाया और अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। अधर्म के विरुद्ध धर्म-शक्ति का परचम लहराया। 'महाभारत' में कौरवों का विनाश और 'कालिया दहन' में नागों का संहार उनकी लोकोपकारी छवि को प्रस्तुत करता है। कृष्ण के जीवन की लोकोपयोगी घटनाओं को अलौकिक रूप देना उस महामानव के प्रति भक्ति-भावना की प्रतीक है। इस पुराण में कृष्ण चरित्र के साथ-साथ भक्ति और वेदान्त के उत्तम सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन हुआ है। यहाँ 'आत्मा' को जन्म-मृत्यु से रहित, निर्गुण और अनन्त बताया गया है। समस्त प्राणियों में उसी आत्मा का निवास है। ईश्वर का भक्त वही होता है जिसका चित्त शत्रु और मित्र और मित्र में समभाव रखता है, दूसरों को कष्ट नहीं देता, कभी व्यर्थ का गर्व नहीं करता और सभी में ईश्वर का वास समझता है। वह सदैव सत्य का पालन करता है और कभी असत्य नहीं बोलता। राजवंशों का वृत्तान्त :-इस पुराण में प्राचीन काल के राजवंशों का वृत्तान्त लिखते हुए कलियुगी राजाओं को चेतावनी दी गई है कि सदाचार से ही प्रजा का मन जीता जा सकता है, पापमय आचरण से नहीं। जो सदा सत्य का पालन करता है, सबके प्रति मैत्री भाव रखता है और दुख-सुख में सहायक होता है; वही राजा श्रेष्ठ होता है। राजा का धर्म प्रजा का हित संधान और रक्षा करना होता है। जो राजा अपने स्वार्थ में डूबकर प्रजा की उपेक्षा करता है और सदा भोग-विलास में डूबा रहता है, उसका विनाश समय से पूर्व ही हो जाता है। कर्त्तव्यों का पालन :- इस पुराण में स्त्रियों, साधुओं और शूद्रों को श्रेष्ठ माना गया है। जो स्त्री अपने तन-मन से पति की सेवा तथा सुख की कामना करती है, उसे कोई अन्य कर्मकाण्ड किए बिना ही सद्गति प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार शूद्र भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह सब प्राप्त कर लेते हैं, जो ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड और तप आदि से प्राप्त होता है। कहा गया है- शूद्रोश्च द्विजशुश्रुषातत्परैद्विजसत्तमा:। तथा द्भिस्त्रीभिरनायासात्पतिशुश्रुयैव हि॥[1] अर्थात शूद्र ब्राह्मणों की सेवा से और स्त्रियां प्रति की सेवा से ही धर्म की प्राप्ति कर लेती हैं। आध्यात्मिक चर्चा :- 'विष्णु पुराण' के अन्तिम तीन अध्यायों में आध्यात्मिक चर्चा करते हुए त्रिविध ताप, परमार्थ और ब्रह्मयोग का ज्ञान कराया गया है। मानव-जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके लिए देवता भी लालायित रहते हैं। जो मनुष्य माया-मोह के जाल से मुक्त होकर कर्त्तव्य पालन करता है, उसे ही इस जीवन का लाभ प्राप्त होता है। 'निष्काम कर्म' और 'ज्ञान मार्ग' का उपदेश भी इस पुराण में दिया गया है। लौकिक कर्म करते हुए भी धर्म पालन किया जा सकता है। 'कर्म मार्ग' और 'धर्म मार्ग'- दोनों का ही श्रेष्ठ माना गया है। कर्त्तव्य करते हुए व्यक्ति चाहे घर में रहे या वन में, वह ईश्वर को अवश्य प्राप्त कर लेता है। महाभारतकालीन भारत का मानचित्र भारतवर्ष को कर्मभूमि कहकर उसकी महिमा का सुंदर बखान करते हुए पुराणकार कहता है- इत: स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते। न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते ॥[2] अर्थात यहीं से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल लोक पाया जा सकता है। इस देश के अतिरिक्त किसी अन्य भूमि पर मनुष्यों पर मनुष्यों के लिए कर्म का कोई विधान नहीं है। इस कर्मभूमि की भौगोलिक रचना के विषय में कहा गया है- उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संतति ॥[3] अर्थात समुद्र कें उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो पवित्र भूभाग स्थित है, उसका नाम भारतवर्ष है। उसकी संतति 'भारतीय' कहलाती है। इस भारत भूमि की वन्दना के लिए विष्णु पुराण का यह पद विख्यात है- गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्। कर्माण्ड संकल्पित तवत्फलानि संन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते। अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिंल्लयं ये त्वमला: प्रयान्ति ॥[4] अर्थात देवगण निरन्तर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग् पर चलने के लिए भारतभूमि में जन्म लिया है, वे मनुष्य हम देवताओं की अपेक्षा अधिक धन्य तथा भाग्यशाली हैं। जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर समस्त आकांक्षाओं से मुक्त अपने कर्म परमात्मा स्वरूप श्री विष्णु को अर्पण कर देते हैं, वे पाप रहित होकर निर्मल हृदय से उस अनन्त परमात्म शक्ति में लीन हो जाते हैं। ऐसे लोग धन्य होते हैं। (Rao Sahab N S Yadav) 'विष्णु पुराण' में कलि युग में भी सदाचरण पर बल दिया गया है। इसका आकार छोटा अवश्य है, परंतु मानवीय हित की दृष्टि से यह पुराण अत्यन्त लोकप्रिय और महत्वपूर्ण है। ©N S Yadav GoldMine #smoking {Bolo Ji Radhey Radhey} अठारह महापुराणों में 'विष्णु पुराण' का आकार सबसे छोटा है। किन्तु इसका महत्व प्राचीन समय से ही बहुत अधिक मान
#smoking {Bolo Ji Radhey Radhey} अठारह महापुराणों में 'विष्णु पुराण' का आकार सबसे छोटा है। किन्तु इसका महत्व प्राचीन समय से ही बहुत अधिक मान #पौराणिककथा
read moreAjay Sharma
अब जब कभी मैं तुम्हें याद करता हूँ- अश्रु-जल से ही तुम्हारा श्राद्ध करता हूँ.....// #श्राद्ध
पूनम पाठक
कौवे कुत्ते और भिखारी को खीर पूरी का भोग अवश्य खिलाएं। परंतु अपने पितरों की तृप्ति के लिए उनके जीते जी ही उन्हें भरपेट भोजन और सम्मान दें। यकीन जानिए वे कौवा बनकर आपका भोजन ग्रहण करने नही आने वाले...🙏 तज़ुर्बे ज़िंदगी के ©पूनम पाठक #श्राद्ध
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पूणिमा श्राद्ध ©Savita Patel पूणिमा श्राद्ध
पूणिमा श्राद्ध #समाज
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जीते जी परवाह नहीं, दुख जाने के बाद कैसा! नहीं मान सम्मान बडों का, घर है वो आबाद कैसा! घुटन अकेलापन ही पाया, जब अपनों के साथ मे रहकर। चले गए तो लोक दिखावा, कैसी श्रधा श्राद्ध कैसा? ©Anita Agarwal श्राद्ध #SunSet
श्राद्ध #SunSet
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पितृ श्राद्ध राजा सगर के सौ पुत्र अपने दुष्कर्मों के कारण कपिल मुनि के कोप भाजन होकर जलकर भस्म हो गये और पाप परिणाम से नरक की दुखद यंत्रणाएं सहने लगे। इन सौ नरकगामी राजकुमारों के भाई अंशुमान राजगद्दी पर बैठें पर वे सदैव इस चिंता में जलते रहे कि किस प्रकार अपने भाइयों का उद्धार करें। अंशुमान के पुत्र दिलीप भी अपने पितृ ऋण को भुला न सका। उसने पितरों के उद्धार के निमित्त घोर तपस्या की पर सफल मनोरथ न हो सका। दिलीप का पुत्र भागीरथ भी चुप न बैठा, पुरखों का उद्धार करना, उनके किये हुये पाप का प्रतिशोध करना आवश्यक था। अपने पूर्वजों की कलंक कालिमा को धोये बिना कोई सपूत कैसे चैन पा सकता है। बताया गया कि सगर के सौ पुत्रों ने पृथ्वी पर जो पाप का बीज बोया है इसका कलंक तब छूट सकता है जब इस संसार पर भगवती गंगा जी लाई जायें। जिनके शीतल जल से उजाड़ खण्ड हरे हो जायें और प्यासे प्राणियों के सूखे कंठों को शीतलता प्राप्त हो। अभाव की पूर्ति का यही उपाय है कि जितनी हानि पूर्व काल में हो चुकी है उतना ही लाभ पहुँचा दिया जाय। पितरों के उद्धार का यही रास्ता है कि उनसे दुनिया का जो उपकार बन पड़ा हो वह सब पाई पाई चुका दिया जाये। भागीरथ के हृदय में सच्चा पितृ प्रेम था, वे पितरों का श्राद्ध करके उनकी परलोकस्य आत्माओं को शान्ति लाभ करना चाहते थे इसलिए सुख वैभव छोड़कर शक्ति सम्पादनार्थ वे घोर तप करने लगे। तप में, संयम में, एकाग्रता में, लगन में, शक्ति का सारा केन्द्र छिपा हुआ है। यह भागीरथ ने जाना और एक महान कार्य को पूरा करने की तैयारी के लिये तप में प्रवृत्त हो गये। तप के बाद उनका पौरुष जागा और वे देवताओं की सहायता से भू-मण्डल पर गंगा जी को ले आये। गंगा जी के आने से संसार का बड़ा उपकार हुआ। सगर सुतों द्वारा दुनिया में जितना अधर्म हुआ था उससे अधिक भागीरथ का धर्म हुआ। पितामहों के दुष्कर्म का परिमार्जन पौत्र के कार्यों द्वारा हो गया। पितरों की आत्माओं को स्वर्ग में शान्ति मिली, उनकी आन्तरिक जलन बन्द हो गई, कुम्भी पाक ही - आत्मवेदना की -कोठरी में घुटता हुआ जी सुस्थिरता अनुभव करने लगा। सच्चे पिंडोदक पाकर पितरों की आत्मायें आशीर्वाद देने लगी। पूर्वजों की भूलों के परिणाम आज हमारा देश शैतान द्वारा पद दलित हो रहा है, पितृओं के कुविचारों के कारण हमारे समाज में नाना प्रकार के भ्रम पाखण्ड घुस पड़े हैं। जिनके पाप से आज हमारी जाति असंख्य कष्ट कठिनाइयों का अनुभव कर रही है। परलोकस्य पितृ अपनी संतति की ओर दृष्टि लगाये बैठे हैं कि कोई भागीरथ उपजे और देश जाति में सुव्यवस्था उत्पन्न करके हमें पिण्डोंदर प्रदान करे। चिन्ह पूजा करने वाले गोबर गणेश तो बहुत हैं पर सच्चा श्राद्ध करके पितृओं की अन्तरात्मा को शान्ति देने वाले भागीरथ दिखाई नहीं पड़ते। पितृ श्राद्ध
पितृ श्राद्ध
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