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Ashutosh Kumar
बंजर की ज़मीं सा दिल था ये, बन नमी वो बारिश की आई, ये ख़बर भी मुझ तक ना पहुंची, कितना वो सुकू संग में लाई, जो बिखरा सा हर मंजर था, लगे सीने में कोई खंजर था, हर जख्म मेरा भरने सा लगा, मानो बन के वो मरहम आई! ©Ashutosh Kumar #retro
gaurang sodha
अभी तो हम मैदान में उतरे ही नहीं और लोगो ने हमारे चर्चे सुरु कर दिए ©gaurang sodha #retro
Md Khan Pathan
जिंदगी जीने का अब तरीका बदल रहा हूं मै की सब अपने हैं इस वहम से निकल रहा हूं मै ©Md Khan Pathan #retro
सागर मंथन
शौक, पाल रखें हों राजाओं के जिसने वो मुफलिसी में रोया नहीं करते। ©सागर मंथन #retro
The Aghori
পেরিয়েছি অনেকটা পথ একাকী , পেরিয়ে যাবো যে টুকু আছে বাকী । সাথে পায়নি কাউকে তখনো দিলে দিও তুমিও শেষে ফাঁকি । ©The Aghori #retro
गीतेय...
महफ़िल-ए-दौर की हरारत नहीं कामिल गीतेय बस उठ कर चल देना ही मुनासिब मुझे अब लोग रुढ़ी समझे तो यही सही... सिगरेट है,राख है, धुआं है शामिल जब कोई नही तो यही सही... ©गीतेय... #retro
GK. Narayana
చెరగని ముద్ర " మన ఇంట్లో వాళ్లకి మన చుట్టూ ఉండే వాళ్లకి మన బంధుమిత్రులకి మనం నచ్చకపోవచ్చు. ఐనా ఏం పరువాలేదు. మనం ఎంచుకున్న దారి మంచిదైతే ప్రపంచమే స్వాగతిస్తుంది ఆదరిస్తుంది ఆభిమానిస్తుంది....!! ✒...జి.కె.నారాయణ (లక్ష్మిశ్రీ) ©GK. Narayana #retro
पूर्वार्थ
शब्द! बेमोल से ये आखर! दर्द में तो ये हलक से नहीं फूटते और खुशियों में ये सारे सावन भादों तक गा देते हैं। ना जाने कितनी सभ्यताएं इनके साथ सिमट गयीं... समाँ गयीं मिट्टी के नीचे पर ये कभी कर्तव्य विमुख नहीं हुए। ये शब्द...शब्द 'शब्द' ही बने रहे...जब इन्होंने प्रियतम को पाया तब भी। और जब ये सहस्त्रों की आवाज बने तब भी। ये महाकाल द्वारा रचित प्रथम का स्थान ले पाए... जब इन्होंने स्वयं का परिचय ॐ कहकर दिया और बदले में इन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ इस संपूर्ण ब्रह्मांड की आदिध्वनि बनने का। हिमालय की तरती घाटियों में जहाँ मेरे पुरखे साँसों को सलाम करते रहे वहाँ भी ये शब्द शब्द ही रहे, एक छोटी सी प्राप्ति यही रही कि बस इनको 'वचन' की संज्ञा दी गयी और इन्हीं तरती घाटियों से निकलती पवित्र सरयू को साक्षी बनाकर जब ये इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा दशरथ के मुख को छूकर निकले तो स्वयं उसके पुत्र राम ने ही कह दिया...कि "प्राण जाए पर वचन ना जाहीं"🧡। निरंतर यात्रा के अभ्यासी ये शब्द रुके कब थे... ये इन्द्रप्रस्थ जा पहुंचे,कैकयी की तरह इन्होंने पांचाली को चुना और इस बार ये सौ भाईयों को प्रेम का बोध देने में असमर्थ रहे। ...क्रोध और नफरत के उच्चतम स्तर की व्याख्या पूर्ण सी थी परंतु इन्होंने इस युग के रंगरेज की नजरों में देखा और फिर ये यहाँ भी समां गए। रघुकुल में जिन भाईयों के अद्वितीय प्रेम का स्थान महाभारत काल में जिन भाइयों की कुदृष्टि,पीड़ा ने ले रखा था उसे ये गांडीवधारी अर्जुन विश्वविदित नहीं करना चाहता था परंतु द्वारिका के रंगरेज ने जो ठान लिया वो किसके रोके रुका है... फिर क्या था यही शब्द बने थे गीता और असंभव में सम्भव को पनाह दी गयी। अन्यथा, भाइयों को इस जगत के स्वामी ने कम से कम युद्ध जैसे घिनौने खेल के लिए तो नहीं रचा था। और इधर...। युगों पहले जिस धरती को छोड़ सब के सब वन चले गए। ...राजा,राजा की जानकी,राजा की प्रजा,राजा के भाई...सब के सब। उसी धरती के लिए सब के सब यहाँ मरे जा रहे थे। ...ये धरती रोती ना,तो क्या ना करती भला। ....और शब्द तो खुद मौन धारण किए थे। धरती व्याकुल सी शब्दों को गहती रही... हाये!ये शब्द ही हैं जो... बदलाव नहीं बस स्वीकार करते हैं जो जैसा है उसे उसी रूप में" ©पूर्वार्थ #retro
Varun Khare
maine to tere wafa se rishta banaya hai, chand par basera chunvaya jai, teri chunar se khicha aata hu, chalte chalte aahista se ruk jata hu. ©Varun Khare #retro
Anil Kumar Baghpat Up
शतरंज के खेल का ढाई चाल वाला मोहरा जिंदगी की बिसात पर अपना बनके दौड़ा ©Anil Kumar Baghpat Up #retro