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Parasram Arora
Vote कितने बन्दे खड़े है यहां सामने का श इनमे कोई राह दिखाने वाला भी हो अंधेरों से लदीं है ये वीरान सी बस्ती काश यहां भी कोई चाँद उगा हो मुस्कराती हुई इन कलियों का अचानक यों मुरझाना कही ये भी इनकी कोई अदा न हो माना की खूब निभाई दुश्मनी हमने उससे. फिर भी चाहा हमेशा कभी उसका बुरा न हो ये उसका ही तज़ुर्बा था ज़ो राह मुझे दिखा गया ताउम्र चाहूंगा उसका हाथ हमेशा मेरे हाथ मे हो दुआ कर्ता हूँ न बुझे चिराग कभी किसी घर का ख़ुशी होंगी मुझे ज़ब हर दिशा मे उजाला ही उजाला हो ©Parasram Arora उजाला ही उजाला....
Guri
मिट्टी में धबे एक बीज सा हूं, आसमान देखना हसरत है मेरी, किसी की उम्मीद पर नहीं जीता, अपनी मेहनत पर जीता हूं, GURI #बीज
-Kumar Kishan Krishan Kr. Gautam
❤️हृदय के मरुस्थल मे ये कैसा बीज बोया है कुछ तो उमड़ रहा, इस जलती तपती रेत में कुछ तो कल्प रहा, भवरें इसपे आ रहे पुष्प कोई तो खिल रहा हृदय के मरुस्थल में ये कैसा बीज बोया है। माली बन रहे हो तो तोड़ बेच आना मत, तेज़ चलती धूप में मुझको मुरझाना मत, तोड़ना गर कभी तो तोड़ निज रख लेना, लेकर गर जाना तो छोड़ के न आना मत, हृदय के मरुस्थल में ये कैसा बीज बोया है। #कुमार किशन #बीज
Avinash Jha
हम तो ख़ुश है, अक़्सर लोगों को, सपने सुहाने सजोए थे हमने एक दुसरे का क़त्ल करते देखा है, संव जीने के कसमें हमने भी थे खाए, कोई किसी के जीवन का कत्ल करता, सपनें अभी थे कच्चे, मैंनें कहाँ अभी जाना था, तो फ़िर कोई किसी के विश्वास का, बीच मँझदार, रौंद कर मेरे ख़्वाबों को, क़त्ले-ऐ-आम रोज है होता रोने- कहराने को छोड़ गया वो मुझकों क़त्ल करके मेरे विश्वास का, डर था मुझको ये बड़ा, एक बीज दिया, मुझमें दिया बो, जमाना क्या कहेगा सारा, खुश हूं कि मैं आज, सोच के मन ही मन, क़त्ल जहां रोज़ सरे आम होते, सिहर सी गए थी मैं मैं एक जीवन दे रही मंजर काल की जब ख़ुद देख पाई है दुख तो बस एक बात का, कर के यत्न, मनन में दृढ़ निश्चल गुनहगारों के सभा में, क़त्ल जो हुआ सो हुआ, मैं भी निर्लज सी खड़ी हुँ, अब जीवन मुझको है देना हाँ ये एक सच भी है, बीज जो अंदर अपने, क़त्ल करके आज मैं आई हुँ बस सृष्टि सृजन उसका है करना। एक विश्वास, एक भरोशे का क़त्ल, जो मुझपर ज़माने ने किया, भरोसा जो मेरे परिवार, मुझपर था किया, घोंट कर गला निर्लज सी खड़ी हूँ ©avinashjha बीज
Babli Gurjar
श्याम लोग ढूंढते हैं जवाब बेचैन सवालों के सब्र रहा नहीं अब चलन में ना रिवाजों में बगैर बीज रोपे ही फसल काटना चाहते हैं खर पतवार को असल संग तौलना चाहते हैं रोपते समय बीजों के गुण और गुणवत्ता भूल जाते हैं काटते समय चुभते शूलों को बार बार नापते हैं पैमाने अलग-अलग नहीं हो सकते एक ही दर्द के तकलीफ़ मेरी ज्यादा औरों की कम है खोट है नजर में बबली गुर्जर मे ©Babli Gurjar बीज
Puneet Kashyap(PK)
#OpenPoetry आँखें भी खोलनी पड़ती हैं उजाले के लिए, केवल सूरज के निकलने से अँधेरा नहीं जाता।। pk उजाला