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Navneet Nirmal
नारी तुम स्वतंत्र हो एक पुरुष की तरह मुझमे मेरी माँ के रूप में मेरी बेटी के रूप में मेरी बेहेन के रूप में और मेरी जीवनसंगनी (पत्नी ) के रूप में #नारी#दैवीशक्ति
Sai_bhakt Shashank rathor
जीवन में अब हर पल अलग ही सुकून हैं साईं तू हैं, तभी तो जीने का जुनून हैं। दैवत_साईबाबा...❤️🙏 #साईं_बाबा #दैवत_साईबाबा
SK Poetic
यह युक्ति अपने आप में सारगर्भित है। संसार में दो तरह के मनुष्य हुआ करते हैं।पहली तरह के लोग कर्मनिष्ट होते हैं,जो अपने परिश्रम पर भरोसा करते हैं।दूसरी तरह के लोग आलसी होते हैं,जो अपने कार्यों को टालते रहते हैं।ऐसे आलसी लोग कर्म भीरू होते हैं,और काम को देखकर डर से सूख जाते हैं। कर्मवीर पुरुष जीवन के हर क्षेत्र में सफल होते हैं,क्योंकि उन्हें अपने परिश्रम पर भरोसा रहता है। वे संघर्षों और बाधाओं से लड़ते हुए अपने जीवन -पथ को प्रशस्त करते हैं।आलसी व्यक्ति भगवान को दुहाई देकर हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं।उन्हें यह ज्ञान नहीं रहता कि भगवान भी उन्हीं की सहायता करते हैं,जो अपनी सहायता आप करते हैं।जो आलसी होते है, वे परजीवी और परान्नभोजी हो जाते हैं।आलसी भगवान के भरोसे कर्म हीन बने रहते हैं और अंत में दुखों से घिरकर बिलबिलाते रहते हैं। ऐसे आलसी को कायर और बुजदिल कहा जा, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।एक प्रसंग से यह बात स्पष्ट हो जाती है।राम समुद्र से रास्ता मांग रहे हैं।राम की दीनता को देखकर लक्ष्मण का पुरुषार्थ जाग उठता है और वे राम से कहते हैं- "कादर मन कर एक अधारा। दैव -दैव आलसी पुकारा।" लक्ष्मण की बात सुनकर राम का पुरुषार्थ जाग उठा और उनके धनुष उठाते हैं समुद्र हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। अतः हम कह सकते हैं कि आलस्य मनुष्य समाज में एक रोग की तरह है, जो उसे दीन- हीन और कायर बनाता है ।अगर हम जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, तो सदा आलस्य से से दूर रहना होगा। ©S Talks with Shubham Kumar #NojotoRamleela दैव- दैव आलसी पुकारा
Kishor Rokade
धन्य धन्य शिवाजी राजे ..होते ते माझे..! जे जे बोलले..ते करून दाखविले..! व्यर्थ नाही वाणीला ठरविले..! जय शिवराय श्री:कि.ज्ञा.रोकडे. देव दैवाचा...माझा राजा.!
Dharmendra Gopatwar
📝 दगडाचा दैव -✍️ दगडाचा दैव तो , हृदय त्याचे पाषाण फुटेना घाम दाटेना अश्रू दगडाचा दैव हा., त्याचे हृदय जणू पाषाण .. भक्ती भावाने पूजिले मी त्याला त्यासी काय ठाव माझी तहान तळमळतो जीव हा गहिवरते प्राण , मनुज मी दैव तो तळमळ माझी निवांत बघतो दगडाचा दैव तो हृदय त्याचे पाषाण.. हृदयस्थ जप त्यासी ऐकू न जाई., केला तप त्यासी उरे न मूल्यमाप अळकला कंठस्त प्राण ह्रदयशून्य दैव माझा - भावशुन्य विधाता.. दगडाचा दैव माझा काळीज त्याचे पाषाण संकटांशी झुंज जिवी लिहिली त्याने विधान जीव सारे मोहरे त्याची लिहीली त्याने जीवा या सुख दुःखाची विधी विधान ; जगी या रंगमंचावर सुख दुःखाच्या दोरीवर खेळविनाऱ्या त्या देवाला बघण्याची जाब विचारायला खेळ हा कशासाठी ! संधी मजला मिळेल काय ? त्याला बघण्याची जल्मी या तहान मिटेल काय ? जरी असला तो दगडाचा दैव आणि काळीज त्याचं पाषाण परि या जीवाची हाक ., तोच श्रेष्ठ महान , लिहिली त्याने सुख दुःखाची कलमे जरी बनविला संविधान ; दगडाचा दैव माझा हृदय मात्र त्याचे पाषाण. कवी _ ध . वि . गोपतवार 📔कवि मन - मनातलं ओझं पानावर ©Dharmendra Gopatwar #दगडाच्या दैव