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करन सिंह परिहार
हे जगजननी, हे श्वेताम्बरि , हे हंसवाहिनी चंद्रकांति। हे ब्रम्हचारिणी, बुद्धि प्रदा, तुम हरो,व्यग्र मन की, अशांति। हो सृजन मातु सद्भावपूर्ण, मैं लिखूँ विकल उर की पुकार। लिख सकूँ त्याग,बलिदान और,सम्मान देश के प्रति अपार। मर्यादा के आदर्श मूल्य , नैतिकता के अनमोल वचन। यह अवमूल्यन संस्कारों का, आभावों से उत्पन्न कुढ़न। सद्ग्रंथ समर्थक, धर्मवान, कर्तव्य मार्ग का त्वरित वेग। संघर्षों से नित जूझ रहे , बूढ़े किसान का निरुद्वेग। ऐसे भावों के लेखन से, जागे जन जन में सुदृढ़ क्रान्ति। हे------------------(१) आहत मानवता की कराह, अनसुनी न मेरे करें कान। लिपिबद्ध कर सकूँ पर पीड़ा,दो मातु मुझे वह दिव्य ज्ञान। विग्रह होते अनुबंध यहां, विध्वंस न कर दे कहीं ग्लानि। वैदिक पाखंडी मठाधीश, कर रहे धर्म की मान-हानि। हे शारद है सविनय विनती , सद्बुद्धि भरो जड़ चेतन में। असहायों को संरक्षण दे, संचरित करो साहस मन में। कर सकूँ दूर निज गीतों से,जग में चहुंदिश जो व्याप्त भ्रांति। हे------------------(२) उपवन की करुण वेदना से,अगणित तरुवर मुरझाए हैं। दुर्गन्धें उठतीं शाखों से, पत्ते पत्ते कुम्हलाए हैं। हो रहे समन्वय विफल यहां, संबंधों में उपजी खटास। असमंजस में जी रहा तंत्र , तम के घर में बंधक उजास। भावार्थ तरल करो दो मैया , छंदों को प्यासे अधर छुएं। शब्दों को दो वह संवेदन , ये क्षुधा ग्रसित हर उदर छुएं। तन मन यह करुणामय कर दो,अन्तर्मन गूंजे ॐ शांति। हे-------------------(३) ©करन सिंह परिहार #माँ शारदे वंदना