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Parasram Arora
कोणार्क के सूर्य मंदिर मे अंधेरों का बसेरा हैँ पुरी के जगदीशजी अपने ही मंदिर से नदारद हैँ क्न्या कुमारी के देश मे अबलाओ का समूह सिसक रहा हैँ यहां सबकुछ आभासी हैँ औऱ यथार्थ से सचाई का दूर दूर तक कही वास्ता नहीं हैँ आभासी ... यथार्थ
Arora PR
चेहरे पर चेहरा लगा कर घूम रहे है लोग. एक खोखली नकली हंसी हंस करें दुसरो को हँसाने क़ी चेष्टा मे व्यस्त है लोग क्या हमारी ये जिंदगी इतनी मायूस हो चुकी है? कि एक आभासी जीवन जीने के लिए विवश हो रहे है लोग..?? ©Arora PR आभासी जीवन
Arora PR
ज़ब वहा कोई ताला नहीं... कोई दरवाज़ा. नहीं और कोई दीवार भी नहीं तो फिर हम चाबीयो से मगज़मारी क्यों कर रहे हैँ? हम काल्पनिक दरवाज़े और काल्पनिक दीवारे बना लेते हैँ और फिर उनको खोलने के लिए काल्पनिक चाबिया भी बना लेते हैँ? ©Arora PR आभासी जीवन
Parasram Arora
संज्ञा औऱ सर्वनाम तो पहले से ही मौजूद थे पर विशेषणों ने आकर जी धमाल की हैँ उसीसे रक्तरंजित हुईं हैँ ये धरती निलंबित हुईं हैँ मानवीय योजनाए औऱ नर्क के द्वार पर स्वर्ग की तख्ती लगा कर भृमित किया जा रहा हैँ मानव को इसीलिए वो इस आभासी स्वर्ग की तीर्थयात्रा पर जाये बिना रुकता नहीं हैँ आभासी स्वर्ग
Arora PR
जो कुछ तुम बता रहे थे कही तुम्हारे किसी स्वप्न का किस्सा तो नहींथा जो कुचब तुमने देखा था कही वो इंद्र का मायाजल तो नहीं था शायद इसीलिए तुम्हारा देखा सुना सब यथार्थ से दूर .. लगता है तभी तो तुम्हारे इस आभासी जीवन मे सत्य की एक भी तरंग नहीं दिख रही और सब कुछ पुल पुला सा दिखाई देने लगा है ©Arora PR आभासी जीवन
Aurangzeb Khan
बुझते हुए चराग को हवा दे गया कोई मौसम ए खिजा में भी गुल खिला गया कोई थम चुकी थी जिनकी उम्मीदें इंसाफ के लिए इस जुल्म के अंधेरों में वक्त रहते ही इंसाफ का दीया फिर जला गया कोई #सर्वोच्च न्यायालय ©Aurangzeb Khan #सर्वोच्च न्यायालय
k.k mehra
संबल अक्ल नकल घन घोर तन मन धन सब मेल सब रंग केद सब उड़ाए फेक के रंग । फिर भी दुनिया बेरंग ©k.k mehra आभासी खुशियां । #LostInNature
somnath gawade
आभासी खिडकीतून डोकावताना.. आभासी खिडकीतून डोकावताना डोळे हरखून जातात तिसरे जग पाहताना मग आपण हळूहळू गुंतत जातो; त्यातले खरे-खोटे समजून घेताना. दुसऱ्यांच्या चांगल्या-वाईटाच्या शोधात आपण स्वतः मात्र हरवत जातो. आभासी जगातल्यांचे अंधानुकरण करताना आपण आपले वेगळेपण विसरत असतो. आभासी लोक चांगुलपणाचा फसवा वैश्विक बाजार मांडतात. साधी भोळी लोकं त्यांची गिऱ्हाईकं होऊन उगाच त्यांचा उदोउदो करत सुटतात. भुरळ घालणारे अनेक धूर्त मुखवटे तुम्हाला येथे भेटतील. नकळत कार्यभाग साधला की, तुम्हाला खिडकीत ताटकळत ठेऊन जातील. वेळ कसा निघून जातो हे कळत नाही; खिडकीततुन अनेक वाटा धुंडाळताना. वास्तव काही हाती लागत नाही; आभासी जग सैरभैर हिंडताना. आभासी खिडकीतून डोकावण्याआधी स्वतःच्या अंतरंगात डोकावलं पाहिजे. जवळच्या माणसांचं मोल जाणून खिडकीपासून शक्य जितकं दूर राहील पाहिजे. #आभासी खिडकीतून डोकावताना.....
Nidhi Pant
दरमियां कोई दीवार नहीं पारदर्शी सा रिश्ता । फिर भी पूछते हो क्या चाहते हो? लगता है आभासी था सब कुछ। #आभासी #नकली_दुनिया #दिखावे_की_बातें
Kavita jayesh Panot
न्याय की कतार अन्यायों की बस्तियों में, देखो न्याय के लिए कतार लगी है। छोटी नही है कोई आवाजे , दिल की गहराइयों से गुहार लगी है। सुनने वाला जैसे बेहरा हो, आँखों से दृष्ट राज । राज सभा में द्रोपतियो की भीड़ लगी है। सरेआम छल ली जाती है , इज्जत बाजारों में किसी बेकसूर की। जैसे किसी हैवान की वासना मुख में सजी हो। किसी के घर पकवानों की थालियां सजती है, तो कोई भूख से तड़प कर मौत की नींद सो जाता है। कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा, कोई लुटा देता है अपनी बुढ़ापे की जमा पूँजी भी, एक न्याय की आस में। फिर भी वर्षो से कागजातों में बंद उम्मीदे पड़ी है। कोई अपने हक की कमाई के लिए , गिड़गिड़ाता है, लाठी के सहारे भी पेंशन आफिस के चक्कर लगाता है। न जाने ये न्याय का कैसा रास्ता है? अधिकारों और न्याय की सुनवाई तो, मन्दिरों के द्वार पर भी धागों में बंधी है। अन्याय की इस बस्ती में , न्याय की कतारें लगी है। न्याय की गद्दी पर बैठा अंधा है, अन्यायों की महफ़िल हर जगह जमी है। कोई मखमली लिबाज पहनें तो, किसी को कफ़न भी न नसीब है। ईश्वर ने बनाया इंसान , ये इतनी सारी अलग -अलग पहचान कैसे ,क्यों बनी है? चलो अब इंसानियत को अपना मूल धर्म बना, भेदों को जहाँ से मिटा दे। हर इंन्सा को उसके मूलभूत अधिकार दिला, ख़ुशनुमा औरो के जीवन भी बना दे। चलो आज समाज को सामाजिक न्याय और, कर्तव्यों के सही मायने सीखा , अन्याय की बस्ती में आग लगा दे।। कविता जयेश पनोत ©Kavita jayesh Panot #न्यायालय #न्याय#इंसानियत