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Anand Mishra
जब निश्चित हो निज हार प्रबल, और मन कुंठित सा तकता हो, लर्जिश हो तन और साँसों में, और डग-मग भय सब सुनता हो, खलिश मची हो अंतर्मन, जीत खड़ी ,फुफकारे फन, आंख झुकीं,मन शायी हो, हर-पल थमते भाई हों, उठो वीर! तब सांस भरो, अब साथी मन का आएगा, सभी पुकारेंगे वीर उसे भी, पर वो कर्ण कहलायेगा । ©Anand Mishra कर्ण #कर्ण
Vivek Singh rajawat
"कर्ण" कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए पथ भ्रष्ट नही तुम संगत भ्रष्ट हो गए, न्याय से तोड़ नाता अन्याय के स्व हो गए कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए, कृष्ण ने भी माना तुमको तुम्हारे कौशल को जाना तुमको एक बार अकेले युद्ध विराम शक्ति जाना, परशुराम की शिक्षा को तुम भूल गए अनिष्ट को अपना स्वयं के अस्तित्व को भूल गए, कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए। तुम सा दानी न हुआ कोई उस द्वापर काल में तुम फँस गए मैत्री और छल प्रपंच के मायाजाल में, अंगदेश को वरदान मिला जो तुम अंगराज हो गए देवी कुन्ती को वरदान मिला तुम सूर्यपुत्र हो गए, कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए। तुमने क्षत्रिय हो कर भी शुद्र के जीवन जी लिया लघु जाति की वेदना तृष्णा को भी सह लिया, यू तो पांडव पाँच थे प्रथम छटे तुम हो गए विधि के खेल में तुम ममत्व से अछूते रह गए, कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए। ये काल ने कुछ ऐसी गति हैं बनाई अनीति देखो आज नीति पर हावी हो आई, कुरु सभा में द्रौपदी का चिर हरण किया जाए हे दानी तुम मौन क्यों ये रहस्य न समझ आए, कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए। तुम दानी,वीर शास्त्रों से शस्त्र तक तुममे समाए फिर क्यों तुम अनीति के साथ हो आए, कर्ण तुम कैसे वीदीर्ण हो गए। विवेक सिंह राजावत कर्ण।
vibhanshu bhashkar
खुद को अर्जुन बताते हो .. अब तुम्हारे शहर कोई कर्ण नहीं बचा क्या ...?? #कर्ण
Prashant
कर्ण पांडवों में था नहीं वो कौरवों की ढाल था शूर वीर था बड़ा वो सबसे बेमिसाल था आंधियों से लड़ पड़े उसमें बल कमाल था पर उसे कोई समझ न पाया क्यूं सदैव अछूत कहलाया ऐसी है कर्ण की गाथा वचन जो दे तो उसे निभाता योद्धा था वो बड़ा महान् इंद्र भी मांगे जिससे दान ©Prashant #कर्ण
#अनूप अंबर
कवच और कुंडल पास में मेरे वो भी मैंने दान किए, पांच अमोघ बाण भी कुंती मां को दान किए,, कैसे कर्ज चुकता मैं दुर्योधन के अहसानों का सारा जग को जवाब एक था जाति गोत्र के तानों का अर्जुन के पास में थे केशव मैं मित्रता के साथ खड़ा था वो अर्जुन कर्ण युद्ध नही था कर्ण तो स्वमं कर्ण के साथ लड़ा था धर्मराज को दिया जीवन भीम का मान घटाया था नकुल सहदेव को इसलिए छोड़ा मेरा वचन सामने आया था, मैं वचन श्राप से बंधा हुआ था रथ का पहिया धसा हुआ था अर्जुन को मैं मरता कैसे कान्हा का चक्र रोक रहा था लेकिन मेरे बाणों के प्रसंशा में मुझे अर्जुन से श्रेष्ठ बोल रहा था मेरे युद्ध कला कौशल से कुरुक्षेत्र समूचा डोल रहा था,, ©##अनूप अंबर #कर्ण
Saurabh Dubey
#कर्ण# त्याग,तप की प्रतिमूर्ति और था वह स्वाभिमानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। जन्म लेते ही राधेय को आँचल मिला था जल का, कहाँ पता था उत्तर देना होगा नियति के छल का। सोचा उसने कुरु वंश को अपना कौशल दिखलाऊँ, निज शरासन से अपने शौर्य का, परिचय जग को करवाऊं।। मगर तभी सभा में एक आंधी सी आई, योग्यता को निगल गयी, जात-पात की खाई।। उसी क्षण कर्ण ने कौन्तेय से प्रतिस्पर्धा थी ठानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। प्रतिस्पर्धा की चाह में वह भटक रहा था वन में, ज्वार सा उमड़ रहा था रक्त उसके तन में।। अपने कौशल से उसने परशु को गुरुता करवायी थी धारण, मन ही मन आनंदित थे दोनों होने वाला था व्रत का पारण।। पीड़ाओं पर विजय प्राप्त कर भी वह था हारा, गुरु ने श्राप दिया रण में भूलोगे ज्ञान सारा।। गुरु को कर प्रणाम फिर उसने अपनी भूल मानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। दे रहे थे अर्घ्य सूर्यपुत्र पिता को जब जल से, मांग लिया देवराज ने कवच-कुंडल तब छल से। देवराज ने यह सोच लिया अब तो यह निर्बल है, किन्तु सूर्यपुत्र का तेज बिन इनके भी और प्रबल है।। बज उठी दुदुम्भी रण में सूर्यपुत्र कर रहे युद्ध की तैयारी, कितने वर्षो बाद कौन्तेय वध की अब आई है बारी। भीषण युद्ध की कालिमा अब दोनों ओर है छानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। फंसा गया अचानक रण में जब सूर्यपुत्र का रथ, केशव ने फिर दिखलाया पार्थ को वहीं विजय का पथ । असमंजस में थे पार्थ नियति के इस खेल से, मन व्यथित था पार्थ का, वास्तविकता के इस मेल से।। संधान किया पार्थ ने फिर गांडीव का और झोंक दिया अपना बल सारा, इस प्रकार रण में कर्ण, गया भ्राता के हाथों मारा।।। वर्षों बीत गए फिर भी अब तक न बदली कहानी, जग में नही हुआ है फिर कर्ण सा कोई दानी।। -सौरभ दुबे "संकल्प" ©Saurabh Dubey ##कर्ण