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Ajay Amitabh Suman

Ajay Amitabh Suman

#वीरत्व #पुरुषार्थ #पराक्रम #वीरत्व #दुर्योधन #अश्वत्थामा #कृतवर्मा #महाभारत Poetry #kavita इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है।अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।

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©Ajay Amitabh Suman #वीरत्व #पुरुषार्थ #पराक्रम #वीरत्व #दुर्योधन #अश्वत्थामा #कृतवर्मा #महाभारत #Poetry #Kavita 
इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है।अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।

Ajay Amitabh Suman

#कविता #दुर्योधन #अश्वत्थामा #महाभारत #कौरव #पांडव #कृतवर्मा #कृपाचार्य ===================== मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का समाधान न मिलने पर उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश क

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मेरे  भुज बल की शक्ति  क्या  दुर्योधन  ने  ना   देखा?
कृपाचार्य  की  शक्ति  का  कैसे कर  सकते अनदेखा?
दुःख भी होता था हमको और किंचित इर्ष्या होती थी,
मानवोचित विष अग्नि  उर  में जलती थी बुझती  थी।
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युद्ध लड़ा था जो दुर्योधन के हित में था प्रतिफल क्या?
बीज चने के भुने हुए थे  क्षेत्र  परिश्रम ऋतु फल क्या?
शायद  मुझसे  भूल हुई  जो   ऐसा  कटु फल पाता था,
या विवेक में कमी रही थी कंटक  दुख पल  पाता था।
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या समय  का रचा हुआ लगता था पूर्व निर्धारित खेल,
या मेरे  प्रारब्ध  कर्म का दुचित  वक्त  प्रवाहित  मेल।
या स्वीकार करूँ दुर्योधन का  मतिभ्रम था ये कहकर,
या दुर्भाग्य हुआ प्रस्फुटण आज देख स्वर्णिम अवसर।
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मन में शंका के बादल जो उमड़ घुमड़ कर आते थे, 
शेष बची थी जो कुछ  प्रज्ञा धुंध  घने कर जाते थे ।
क्यों कर कान्हा ने मुझको दुर्योधन के साथ किया?
या नाहक का हीं था भ्रम ना केशव ने साथ दिया? 
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या गिरिधर  की कोई लीला थी शायद  उपाय भला,
या अल्प बुद्धि अभिमानी  पे माया का जाल फला।
अविवेक  नयनों पे इतना सत्य दृष्टि ना फलता था,
या मैंने स्वकर्म रचे जो  उसका हीं फल पलता था?  
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या  दुर्बुद्धि फलित हुई  थी ना इतना  सम्मान किया,
मृतशैया पर मित्र पड़ा था ना इतना भी ध्यान दिया।
क्या  सोचकर  मृतगामी  दुर्योधन  के  विरुद्ध पड़ा ,
निज मन चितवन घने द्वंद्व में मैं मेरे  प्रतिरुद्ध अड़ा।
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित

©Ajay Amitabh Suman #कविता  #दुर्योधन #अश्वत्थामा  #महाभारत #कौरव #पांडव #कृतवर्मा  #कृपाचार्य
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मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का  समाधान न मिलने पर  उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते   तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश क

Ajay Amitabh Suman

#कविता  #दुर्योधन #अश्वत्थामा #महादेव #महाभारत #कौरव #पांडव #कृतवर्मा #कृपाचार्य इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् सोलहवें  भाग में दिखाया गया जब कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा पांडव पक्ष के बाकी  बचे हुए जीवित योद्धाओं का संहार करने का प्रण लेकर पांडवों के शिविर के पास पहुँचे तो वहाँ उन्हें एक विकराल पुरुष पांडव पक्ष के योद्धाओं की रक्षा करते हुए दिखाई पड़ा। उस महाकाल सदृश पुरुष की उपस्थिति मात्र हीं कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा के मन में भय का संचार उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त

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वक्त  लगा था अल्प बुद्धि  के कुछ तो जागृत होने में,
महादेव से  महा काल  से  कुछ  तो  परीचित होने में।
सोंच पड़े  थे  हम  सारे  उस  प्रण का रक्षण कैसे  हो ?
आन पड़ी थी विकट विघ्न उसका उपप्रेक्षण कैसे हो?
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मन में  शंका के बादल सब उमड़ घुमड़ के आते थे ,
साहस जो भी बचा हुआ था सब के सब खो  जाते थे।  
जिनके  रक्षक महादेव  रण में फिर  भंजन हो कैसे? 
जयलक्ष्मी की नयनों का आखिर अभिरंजन हो कैसे?
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वचन दिए थे जो मित्र को निर्वाहन हो पाएगा क्या?
कृतवर्मा  अब तुम्हीं कहो हमसे ये हो पाएगा क्या?
किस बल से महा शिव  से लड़ने का  साहस लाएँ?
वचन दिया जो दुर्योधन को संरक्षण हम कर पाएं?
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मन  जो  भी  भाव निराशा के क्षण किंचित आये थे ,
कृतवर्मा  भी हुए निरुत्तर शिव संकट बन आये  थे।
अश्वत्थामा   हम  दोनों  से  युद्ध  मंत्रणा  करता  था ,   
उस क्षण जैसे भी संभव था हममें साहस भरता था ।
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बोला  देखों  पर्वत  आये  तो चींटी   करती है क्या ?
छोटे छोटे  पग उसके पर वो पर्वत से डरती  क्या ?
जो  संभव  हो  सकता उससे वो पुरुषार्थ रचाती है ,
छोटे हीं   पग उसके  पर पर्वत मर्दन कर जाती है।
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अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षि

©Ajay Amitabh Suman #कविता  #दुर्योधन #अश्वत्थामा #महादेव #महाभारत #कौरव #पांडव #कृतवर्मा  #कृपाचार्य 

इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् सोलहवें  भाग में दिखाया गया जब कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा पांडव पक्ष के बाकी   बचे हुए जीवित योद्धाओं का संहार करने का प्रण लेकर पांडवों के शिविर के पास पहुँचे तो वहाँ उन्हें एक विकराल पुरुष पांडव पक्ष के योद्धाओं की रक्षा करते हुए दिखाई पड़ा। उस महाकाल सदृश पुरुष की उपस्थिति मात्र हीं कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा के मन में भय का संचार उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त

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