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Aprasil mishra
"उदारवाद बनाम रुढ़िवाद : एक जीवट समावेशी संस्कृति के सन्दर्भ में " 1.सांस्कृतिक अंतर्परिवर्तन- संस्कृति के बाहर किसी अन्य में संस्कृति में होने वाले बदलाव. 2.सांस्कृतिक अंत:परिवर्तन- किसी संस्कृति के भीतर होने वाले बदलाव. ******************************************* संस्कृति किसी समाज में लोगों की संज्ञानात्मक एवं भौतिकीय प्रक्रियात्मकता के मानकीकरण का साधन होती है, जो उस समाज के बीच ही सीखी और विकसित की जाती है|संस्कृतियों की तीन आयाम - 'संज्ञानात्मक (श्रव्य/दृश्य), मानकीय(व्यवहृत आचरण), भौतिकीय (उपभोग)' ही वे उपागम हैं, जो उसकी प्रकृति एवं गतिशीलता को सुनिश्चित करती हैं|संस्कृतियाँ वास्तव में एक सामाजिक धरोहर होती हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति अपने समूह से प्राप्त करता है|किसी भी संस्कृति में उसके भौतिक उपागम ही प्राय: उसके मानकीय उपागम के निर्धारक बन जाते हैं, जिससे श्रेष्ठ व प्रभावी वर्गों तथा अन्य निचले सामाजिक संस्तरीय वर्गों में विषमताएं उदित हो जाती हैं|प्रभुत्व प्राय: निजी मोह के चलते स्वत्व की भावना में परिवारवाद/वंशवाद में केन्द्रित होने लगता है|ऐसे में समय व्यतीत होने के साथ ही परिवार केन्द्रित प्रभुता के विरुद्ध निम्नसंस्तरीय सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के बीज प्रस्फुटित होने लगते हैं| अतैव उक्त परिस्थितियों में कुलीन वर्ग जहाँ परिवर्तन को अस्वीकृत करते हुए उसे अपने प्रभुत्व की स्थिरता हेतु सांस्कृतिक अस्मिता करार देते हुए रूढ़िवादी रवैया अपनाता है, लोगों को प्रतिरोधी बनने से रोकता है और परम्परावादी दृढ़ अनुपालन को श्रेष्ठ आदर्श घोषित कर देता है|वहीं उस समाज का निचला धड़ा जो कुलीनों के सांस्कृतिक विशेषाधिकारों में स्वयं को दमित, वंचित व निरीह अनुभव करता है, परिवर्तन को स्वीकृति प्रदान कर समर्थन को अग्रिम पंक्ति में खड़ा हो जाता है|ऐसे में द्वितीय कोटि के समर्थक उदारवादी हो जाते हैं, जो सांस्कृतिक आधारों या उसकी मौलिकता को बिना कोई क्षति पहुँचाये सर्वहित रक्षण हेतु परिवर्तन के पथों को सुगम्य संतुलनवादी बनाये रखने की पहल करते हैं|बदलावों के पक्ष में कुलीनों की संख्या सीमित होने के कारण प्राय: संख्याबल अधिक होता है, जिससे सांस्कृतिक प्रवर्तनीयता प्रवाहमान बनी रहती है, जो कि सांस्कृतिक लोकतंत्रवाद का ही एक प्रतिमान है, परन्तु संस्कृतिकरण का एक ऐतिहासिक अनुभव भी है, जिसे नकारा नहीं जा सकता|
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