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मुफ़लिस की हिमायत के क़िस्से तक़रीर में अच्छे लगते

मुफ़लिस की हिमायत के क़िस्से तक़रीर में अच्छे लगते हैं 
देखा हो अगर परबत जैसे तस्वीर में अच्छे लगते हैं 

आज़ाद घूमते हैं तो फिर दहशत का सबब बन जाते हैं।
दीवाने अमूमन सब को ही ज़ँजीर में अच्छे लगते हैं 

कुछ ख़्वाब सुहानी रातों को संगीन बना देते हैं मगर 
खुलते हैं मुआनी तो यानी ताबीर में अच्छे लगते हैं 

अक्सर वो मकां जो परखों की यादों में बनाए जाते हैं 
बरकत का वसीला बनते हैं तामीर में अच्छे लगते हैं 

है तल्ख़ अगर लहजा भी तो क्या मासूम है तू लहजे पे न जा 
माँ-बाप की कड़वाहट के समर आखीर में अच्छे लगते हैं 

# मासूम ग़ाज़ियाबादी

©साहित्य संजीवनी
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