धुँआ जो उठा सन सन्तावन में वो आग धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी विद्रोह सिर्फ जनता नही कलम भी अब करने लगी थी गुलामी जैसे जैसे बढ़ने लगी अत्याचार कब तक सहते ये आत्मा भी खुद से अब लड़ने लगी थी कलम चलने लगी आबाज़ स्वराज की उठने लगी थी डगमगाने लगा वो हर सिंहासन जो देश की नही , वो हर चीज़ अब होलिका में जलने लगी थी खोने के भय से अस्तित्व अपने सत्ता अब डरने लगी कलम सिपाही के बनने लगे आबाज़ कलमो की अब , जोर पकड़ने लगी थी। उदघोष स्वतन्त्रा का होने लगा डंका भारत का बजने लगा गांधी की आंधी चलने लगी थी प्रेमचंद ने हज़ारो प्रेमचंद बना डाले अब हर लेखक की लेखनी निर्भिक -निडर ,सत्य पथ पर बढ़ने लगी थी ✍️रिंकी धुँआ जो उठा सन सन्तावन में वो आग बढ़ने लगी थी विद्रोह सिर्फ जनता नही कलम भी अब करने लगी थी गुलामी जैसे जैसे बढ़ने लगी अत्याचार कब तक सहते ये आत्मा भी खुद से अब लड़ने लगी थी कलम चलने लगी