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ताउम्र बनना या बिगड़ना ,मिट्टी सी होती है वो कभी ज

ताउम्र बनना या बिगड़ना ,मिट्टी सी होती है वो 
कभी जरुरत के हिसाब से ढाला जाना ,
कभी तोड़ के रोंधा जाना ,फिर ढाला जाना 
,
टूटे अरमानो को अपनी सिसकियों में दबाये होती है ,
खंड खंड होकर भी अखंड दिखने वाली वो स्री होती है|


 सारे सपने सुलगने लगते है कोयले की राख बनने तक ,
फिर भी एक आवाज़ जो सब्दो में बदलने की हिम्मत नहीं करती
 ,
बिना दोष के भी आंखे उसकी घबराई हुई होती है 
खंड खंड होकर भी अखंड दिखने वाली वो स्री होती है|

©bholeshayar
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