कल तक मेरा साया था।। जो कल तक मेरा साया था, आज खून का प्यासा है। धर्म कहो, मज़हब कह दो, एक धोखा एक झांसा है। धरा सुनहली, सूरज सुनहला, दुनिया थी खुशहाल, बंटे बंटे अब लगते सब, कोई पीतल कोई कांसा है। उर्दू बोलो संस्कृत कह लो, हिंदी पारसी या इंग्लिश, मानव मानव को कैसे देखो बांट रही कोई भाषा है। हममे तुम थे तुममे हम थे, हमने दर्द बराबर झेला है, फिर बिछा बिसात चल रहा कौन ये कोई पासा है। लहू लहू में फर्क नहीं, क्यूँ अंतर्मन हुआ ये काला है, तलवारों का खेल ये कैसा, धार ये किसने तराशा है। गीता कुरान में क्या लिखा है, ज्ञान छुपा ये कैसा है, मनुज मनुज में भेद नही, एक ही बस परिभाषा है। तुम किसकी ख़ातिर लड़ते, मैं क्यूँ गर्दन उतार रहा, ना मैं दोषी ना दोष तुम्हारा, कुछ लोगों ने फांसा है। सच तो हमेशा सच ही रहेगा, ये ना बदला जाएगा, मैंने जो ये सच बोला, हुआ चेहरा क्यूँ ये रुआंसा है। ©रजनीश "स्वछंद" कल तक मेरा साया था।। जो कल तक मेरा साया था, आज खून का प्यासा है। धर्म कहो, मज़हब कह दो, एक धोखा एक झांसा है। धरा सुनहली, सूरज सुनहला, दुनिया थी खुशहाल, बंटे बंटे अब लगते सब, कोई पीतल कोई कांसा है।