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Ek villain
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों अपने चुनाव भाषणों में एक शब्द का प्रयोग कई बार करते हैं वह इस इकोसिस्टम जब वह इकोसिस्टम की बात करते हैं तो उनका निशाना उस संगठित समूह की ओर होता है जो उनकी पार्टी और उनके कार्यों को विफल करना चाहती है लक्ष्य तक पहुंचने की राह में रोड़े अटका आती है इस इको सिस्टम का प्रभाव राजनीतिक के बाद सबसे अधिक संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं में देखा जा सकता है इकोसिस्टम का प्रभाव देखना हो तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में 20 से 5 वर्ष में घटने वाली घटनाओं को देखा जा सकता है इको सिस्टम के सदस्य वह इस कदर हावी है कि संस्था के हर तरह के काम में रोड़े अटका आते जाते हैं पिछले दिनों राष्ट्रीय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दीवार पर प्रधानमंत्री का एक बेहद ही आपत्तिजनक चित्र बना दिया और बड़े आकार के चित्र को दीवार करने में घंटे लग गए होंगे लेकिन महाविद्यालय प्रशासन को इसकी भनक नहीं लगी चित्र साझा किया जाने लगा तो प्रशासन हरकत में आया चित्र मिटाया गया परंतु उच्च शिक्षा पर कोई कार्रवाई नहीं की जिसकी देखरेख में अभी तक जनक चित्र बनाइए भी इकोसिस्टम प्रतिक्रिया हुए और पहले इसको अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ा गया लेकिन जब कार्यकारिणी देश के कार्य से दबाव बना तो इस छात्र को उत्साह में कई कई गलतियां बताकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश हुई किसी पर भी कोई कार्रवाई हुई तो यह पता नहीं चल पाया ©Ek villain #अराजकता को बढ़ाने वाली अर्थव्यवस्था #Nofear
sampu janagal
एक ज़रा सी प्रेम कहानी हम लड़कों की क़िस्मत में है आग बहुत सी थोड़ा पानी एक किताबों की अलमारी में थोड़े खुशबू के रेशे कुछ घण्टों की नींद उसी में दुनियाभर के ख्वाब बुरे से मीरा के भजनों को घेरे रहती है कबीर की बानी उम्मीदों की लम्बी सूची जाने पूरी होगी कैसे एक बड़ा बाज़ार सामने छोटी जेब ज़रा से पैसे चेहरे पर तैरा करती है एक झेंप जानी पहचानी एक लड़ाई अंतहीन है सारी उम्र इसी को दे दी गोलों को काला करने में दाढ़ी तक आ गयी सफेदी डीपी तक में रखनी पड़ती है कोई तस्वीर पुरानी ©sampu janagal #फेसबुक वाली कविता
#फेसबुक वाली कविता
read moreTanendra Singh Khirjan
सहजता, सरलता एवं बंदगी कुछ और थी, लोग थे पुराने मगर जिंदगी कुछ और थी, सुख सुविधाएं परिपूर्ण है मगर कहीं थोड़ा अभाव भी, जीने का सलीका और बदल दिया स्वभाव भी। न जाने क्यूं ये जिंदगी इंसान से खेलती हैं, बचपन और जवानी तो अब बुढ़ापा झेलती हैं, लोग भूल गए हैं बड़ों की बातें बूढ़ों के पास बैठना और उनकी यादें। दिन-ब-दिन हम खो रहे हैं जीवन के सुखद आभास को। न जाने क्यूं जमीं पर रहकर हम भूल रहे आकाश को।। इससे पहले कि हम गुलाम हो जाए, सुबह से पहले शाम हो जाए। इससे पहले कि काम तमाम हो जाए, सीख लो पुरानी बातें जो थोड़ी भी काम आ जाए ये रीति नहीं कहती कि हम पाश्चात्य के गुलाम हैं। हम अटल है भारत देश के कलाम हैं। कविता (प्रेरित करने वाली)
कविता (प्रेरित करने वाली)
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