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MAHENDRA SINGH PRAKHAR
मुक्तक :- मेरे मन को भाती है उसके मन की चंचलता । फूलो से भी नाजुक है उसके तन की कोमलता । शब्दों में कैसे बयाँ करूँ वो कितनी सुंदर है - यूँ मानों अब देख उसे मुझको मिलती शीतलता ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR मुक्तक :- चंचल मन मेरे मन को भाती है उसके मन की चंचलता । फूलो से भी नाजुक है उसके तन की कोमलता । शब्दों में कैसे बयाँ करूँ वो कितनी सुं
Poet Kuldeep Singh Ruhela
#कोई चेहरे पर फिल्टर लगा के खूबसूरत बन जाती हैं नई नई विडियो बनाके वो फिर सबको रिझाती है हो जाते है सब फिदा उसकी चंचल शोख अदाओं पर फिर थोड़ा इमोजी में मुस्कुराकर लाइक और कमेंट के बटन दबवाती है! कुलदीप सिंह रुहेला गुमनाम शायर सहरानपुर उत्तर प्रदेश ©Poet Kuldeep Singh Ruhela #darkness #कोई चेहरे पर फिल्टर लगा के खूबसूरत बन जाती हैं नई नई विडियो बनाके वो फिर सबको रिझाती है
Bhanu Priya
कुछ छांव सा कुछ धूप सा कुछ चंचल सा कुछ शांत सा कुछ गीत सा कुछ संगीत सा एहसास उस प्रीत का कुछ खट्टा सा कुछ मीठा सा कुछ तिखा सा कुछ फीका सा कुछ ताप सा कुछ शीत सा एहसास उसे प्रीत का जिसे भी नसीब हुआ अक्सर उन शामो में ही महसूस हुआ । ©Bhanu Priya कुछ छांव सा कुछ धूप सा कुछ चंचल सा कुछ शांत सा
INDIA CORE NEWS
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Mahadev Son
ये चंचल मन ले चल तू आज मुझे उस बस्ती में जहाँ जगदम्बे माँ का डेरा है आज दिल बेताब मेरा मिलने को तड़पता है बस ले चल तू ये चंचल मन जहाँ मेरी माँ का डेरा वैसे तो रोज भटकाता है आज मेरा भी ज़ी करता तुझे भटकाने को बस अब ले चल सपनों में सही बस तू ले चल अब उस बस्ती में जहाँ माँ का डेरा है ©Mahadev Son ये चंचल मन ले चल तू आज मुझे उस बस्ती में जहाँ जगदम्बे माँ का डेरा है आज दिल बेताब मेरा मिलने को तड़पता है बस ले चल तू ये चंचल मन जहाँ मेरी म
Mahadev Son
आत्मा थी अज़र है अमर रहेगी जन्म "मन" का, मरण " तन" का हुआ सृजन हुआ जिसका नष्ट होना तय उसका सफर यही तक का यही तेरी ही भूल थी त्याग देगा भर जायेगा "मन", इस तन से "मन" चंचल पर अज़र बस निर्भर कर्मों पर कर्म होंगें जैसे "मन" जन्म का "तन" पायेगा वैसे जैसे जेब में पैसे होते वैसे वस्त्र खरीदता तू हिसाब किताब सब यहाँ होता पैसों से वैसे मन का होता वहाँ सब कर्मों से पायेगा क्या भोगेगा क्या फिर से चंचल "मन" को भी न मालूम वर्ना छोड़ता न कभी इस "तन" को ...! ©Mahadev Son आत्मा थी अज़र है अमर रहेगी जन्म मन का, मरण तन का हुआ सृजन हुआ जिसका नष्ट होना तय उसका सफर यही तक का यही तेरी ही भूल थी त्याग देगा भर जायेग
बादल सिंह 'कलमगार'
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
दोहा :- चंचल चंचल मन की जो कभी , सुनते आप पुकार । दौड़े आते साजना , प्रियतम के ही द्वार ।। च़चल मन की वो खुशी , देख सके क्या आप । मन ही मन खिलता रहा , सुनकर ये पदचाप ।। चंचल मन ने बाँध ली , आज प्रेम की डोर । कैसे निकलेंगे सजन , नैना है चितचोर ।। चंचल दिखती है पवन , छेड़े मन के तार । आने वाले हैं सजन , लायी खत इस बार ।। चंचल मन वैरी हुआ , करके उनसे प्रीति । सुधि भी वह लेता नहीं , निभा रही मैं रीति ।। २७/०२/२०२४ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR दोहा :- चंचल चंचल मन की जो कभी , सुनते आप पुकार । दौड़े आते साजना , प्रियतम के ही द्वार ।।