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Axar pathak
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Manik Trehan
Dr. Satyendra Sharma #कलमसत्यकी
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Rajesh Raana
Dil galti kr baitha h
जब भी उनकी गली से गुज़रते हैं, मेरी आँखें एक दस्तक दे देती हैं, दुःख ये नहीं वो दरवाजा बंद कर देते हैं, ख़ुशी ये है कि वो मुझे पहचान लेते हैं। ©Dil galti kr baitha h जब भी उनकी गली से गुज़रते हैं, मेरी आँखें एक दस्तक दे देती हैं, दुःख ये नहीं वो दरवाजा बंद कर देते हैं, ख़ुशी ये है कि वो मुझे पहचान लेते
Gudiya Gupta (kavyatri).....
एक दरवाजा है ..बंद पड़ा है ...गम से भरा ..खुलता नहीं है ना कोई झांकने की कोशिश करता है! पर यह क्या मैंने जैसे ही दरवाजे खोले मेरी उदासी की जिंदगी में मुस्कुराहट फैल गई इसमें उसका कोई दोष नहीं वह तो अभी भी शांत है. चुपचाप है..! पर ना जाने क्यों मुझे ऐसा क्या दिखा ? मुझे ऐसा क्या मिला? उसके पास गम है मेरे पास गम है और यह ..किसी के पास नहीं कम है! फिर भी भला उदासी के दरवाजे के पीछे यह खुशी की कैसी दस्तक। कहीं मेरा भ्रम तो नहीं। अरे ,नहीं ,!नहीं! भ्रम तो अभी तक था वास्तविकता से तो अभी साक्षात्कार हुआ है हां !वही जो किसी के दर्द को जानकर मुझे प्यार हुआ है वह नहीं बोलेगा उसे बोलना भी नहीं मुझे उससे कहलवाना भी कुछ नहीं है । स्थिर है शांत है कायम है अपने स्थान पर मैं ही मानो ! हवा का रूप धारण करके उसकी कोने कोने से गुजर रही हूं । देख रही हूं दरख़्त जो सालों पहले से सुखी पड़ी हुई दरारों से भर चुकी है इसकी कुंडी जो लगती तो बहुत अच्छी तरीके से है पर अपने आप को बंद ही नहीं कर सकी इस दरवाजे पर फेरा गया हर एक हाथ जो मर्म स्पर्शी के साथ-साथ दर्दनाक भी था जैसे मानो ! किसी ने प्यार से सहला कर जोर से थपथपा कर पीटा हो वह अपनी रुदन में आने वाले कल को जोड़ता है पर उस वर्तमान का क्या ? उस हवा का क्या जिसे वह अनदेखा कर रहा है! अनदेखा करना भी चाहिए मैं वास्तविकता के साथ काल्पनिकता का भी तो आधार हूं। वो यथार्थ से पूर्ण मै कल्पनिकता से संपूर्ण खैर हवा ही तो हूं दिखूंगी कहां से? हवा ही तो हूं। अस्तित्व होकर भी अस्तित्व हीन हू। हां मैं हवा हूं। मैं महसूस तो हो सकती हूं मगर इसके दरवाजे पत्थर के समान कठोर हो चुके हैं जिसके अंदर की दीवारें प्रेम से वशीभूत विलाप करती नजर आ रही है मैं अंदर जा सकती हूं मैं बाहर रह सकती हूं मगर महसूस तब तक नहीं हो सकती जब तक दरवाजे खुद की स्वेच्छा से ना खुले क्या फायदा? जब अंतर स्वेच्छा और इच्छा में हो जाए मैं विचरण करती रहूंगी इसके सुर्ख दीवारों पर मैं झकती रहूंगी सर्वदा चुपचाप किनारों पर इस इंतजार में की इच्छा स्वेच्छा में परिवर्तित होगी और अगर नहीं भी हुई ..तो इस बात का महत्व हमेशा मानूंगी की.. वह दरवाजा जिसके पार कोई पार न हो सका कुछ तो विशेष था जिस वजह से मैं विचरण अभी भी कर रही हूं। अनुभव कल्पना अभिव्यक्ति गवाह है मेरे और तुम इसके प्रत्यक्ष! शेष होकर भी सब कुछ विशेष है।! ८७४६ ©Gudiya Gupta (kavyatri)..... #EK दरवाजा है।
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