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रजनीश "स्वच्छंद"
ज़िन्दगी के खेल।। जब ज़िन्दगी खेलती है खेल बचपन के, फिर कुछ यूं चलें कारवां दर्द-ए-चमन के। छुपन-छुपाई और फिर एक धप्पा उसपर, अब हर धप्पे पे होते खाक परिंदे लगन के। हाय कबड्डी, मिट्टी सना, सांस रोके भागना, अब मन कालिख सना श्वेत कपड़े बदन के। राजा मंत्री चोर सिपाही, पर्चे में खुशी अपनी, अब ज़िन्दगी हुई पर्चा और दिन उलझन के। वो कंचे की गोलियां, जेब से आती खनक, अब ढूंढते हैं सच छुप पीछे किसी दर्पण के। हर दिन थी होली, ईद और दीवाली अपनी, अब हुए ग़ुलाम दिन, मुहूरत और सगन के। हो तितली उड़ते थे स्वछंद पाने को जहां सारा, अब लगे मानो हुए टूटे सितारे उसी गगन के। बो भी आते थे गुठलियां आम की बगीचे में, अब चुभने लगे हैं कांटे दर्द बन उसी चमन के। क्या मज़हब क्या दुनिया अपना पराया कौन, अब फिरते हो मुरीद इस दुनिया के चलन के। जो मांगे है मिलती भीख नहीं, कैसे मांगूं में, कोई लौटा दे ऐ "स्वछंद" बीते दिन बचपन के। ©रजनीश "स्वछंद" ज़िन्दगी के खेल।। जब ज़िन्दगी खेलती है खेल बचपन के, फिर कुछ यूं चलें कारवां दर्द-ए-चमन के। छुपन-छुपाई और फिर एक धप्पा उसपर, अब हर धप्पे पे ह
Priya Tambde
हौसला नही होता..... अगर सर पर माँपापा का हाथ नही होता..... दिल में आग और खून में जुनुन नही होता..... युँ ही दिवानी नही हैं दुनिया कबड्डी की.... चहूँ दिशाओं में अगर " कबड्डी कबड्डी " का नाद ना होता.......! insta@priyatambde -Piu २६-०९-२०१९ कबड्डी
Rahul sehrawat
जिस छोरे की कैची के जिकरे चाले सारे लाठिया काला लाठिया काला पब्लिक रुके मारे कबड्डी स्टेटस