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गौरव गोरखपुरी
पैसों से ही नहीं होता शहर में सहर, शाम को दर पर दिया भी तो जले मेरे शहर में सिर्फ पैसे से , अब कोई ख़ुश- हाल भी नहीं रहा किसके इज्जत पर आंच आईं , किसके गिरेबान पर डांका पड़ा मेरे शहर में ऐसा पड़ोसी , अब कोई ऐसा कोतवाल भी नहीं रहा देख कर मुंह फेर लेते है , वक़्त से जूझ रहे मेरे रिश्तेदार शहरी मसला अजीब सा है शहर का , यहां गांव सा हालचाल भी नहीं रहा दीवारें ऊंची हो रही हैं, घर के चार - दिवारी की हर रोज बगल में कौन घूंट - घूंट के मर रहा है , मेरे शहर को ये ख्याल भी नहीं रहा उलझे हुए है सब के सब , सोशल साइट्स की जाल में अब चौराहे पर ठहाके सुनाई नहीं देते , अब कोई कोलाहल भी नहीं रहा मुश्किल से देखने को मिलती है , माटी में खेलते बच्चे शहर में बच्चो की कहानियों में , अब विक्रम - बैताल भी नहीं रहा पुराने घर में ही पुराने , मां- बाप को छोड़ आए हैं इस पाप का मेरे शहर को , अब मलाल भी नहीं रहा रिश्ता तोड़ देते है , चंद नोक - झोंक में भावनाएं और वादे इस शहर में , अब कोई सम्हाल भी नहीं रहा निकलते है नाश्ता कर के , खाने के वक़्त पर लौट आते है गर्मी की छुट्टियों वाला , शहर में ननिहाल भी नहीं रहा गांव को देहात कह हसने वाले , क्या यही तरक्की है मेरे शहर की शहर वालो को शहरी कहने का , अब बचा कोई मिसाल भी नहीं रहा पेशा मोहब्बत था, शौक नहीं मेरा , ऐसे पेशवाई से लाचार मेरे सिवा मेरे शहर में, अब कोई बदहाल भी नहीं रहा #poeticPandey #GAURAVpandeyPoet #MeraShehar 2 पैसों से ही नहीं होता शहर में सहर, शाम को दर पर दिया भी तो जले मेरे शहर में सिर्फ पैसे से , अब कोई ख़ुश- हाल नहीं रहा किसके
Payal Dholakia
बेफिक्री राहों में नादान सी ये ख्वाहीशों को साथ लिए हिज्र की मुंतजिर हूं अब्र का टुकड़ा हैं सपनों से भरा, आखिर कब तक कितनों पे बरसे? ना जाने क्युं, फासलों में ही अपनापन ढूंढना अब आदत सी हो गई हैं शायद, तन्हाइयों की खामोशियों को हमसे लगाव हो गया है बेशक, जूनुन से सुकून मिले फिर भी, हर हर्फ तन्हा सा हैं जैसे, कोई नज्म़ कोरे कागज़ पर अनलिखी हो, और भुली भी नहीं जाती ऐसी दास्तान अधूरी होकर भी, अपनेआप में ही मुकम्मल हैं एक अधूरे फसाने की तरह, एक अनकही नज्म़ की तरह। सिर्फ एक नगमा हैं, प्यार का। हिज्र की ऊंची दीवारें।💛 #Yqhindi #Yqbaba
Vijay Kumar उपनाम-"साखी"
"ये ऊंची-ऊंची इमारतें" ये शहरों की ऊंची-ऊंची,इमारतें बता रही जनसंख्या के आंकड़े गर अब भी हम लोग न सम्भले बहुत जल्द होंगे बड़े-बड़े हादसे कम चीजों से ज्यादा की चाहते इससे हो रही,हादसों की आहटें बढ़ रहा,भूमि पर अतिरिक्त बोझ कत्ल हो रहे,नित ही,भू कालजे बिगड़ रहा,पारिस्थिकी संतुलन मनुष्य का बहुत बिगड़ गया,मन बहुत बढ़े,प्रकृति छेड़छाड़ मामले कुल्हाड़ी,पांवों पर खुद ही मार रहे ये शहरों की ऊंची-ऊंची,इमारतें मिटा रही गांवों की मासूमियतें फूल दब रहे है,पत्थरो के तले बहुत बिगड़ गई,हमारी आदतें गर वक्त रहते हम लोग न सुधरे बढ़ी जनसंख्या,पार करेंगी हदें भुखमरी से बढ़ेगी,इतनी मौतें एक आम खाने,मरेंगे सो-सो जने प्रकृति से जो गर छोड़ेंगे जड़ें फिर तो हम सूखकर ऐसे मरेंगे, जैसे जेठ दुपहरी में बदन जले व्यर्थ की आधुनिकता छोड़ चले जो भी कार्य प्रकृति को हानि दे वो कार्य हम लोग कभी न करे जितना हम प्रकृति से जुड़ सके, वो कार्य हम लोग अवश्य ही करे प्रकृति मां की गोद मे सोने चले ओर अपने सारे ही गम भूल चले ये ज़माने की ऊंची-ऊंची इमारतें आज तक कोई संग लेकर न चले जिओ-जीने दो,सिद्धांत पर चले ओर निःस्वार्थ कर्म करते हुए चले जिसने जिंदादिली के जलाये दीये उस रोशनी से,तम जगमगाने लगे दिल से विजय विजय कुमार पाराशर-"साखी" ©Vijay Kumar उपनाम-"साखी" ऊंची-ऊंची इमारते #City
alka mishra
बेशक होतें हम बेजान मगर ये सच कहा किसी ने की होतें हैं हमारे कान अगर आये न यकीन तो देख लो जाकर तुम खंडहर हुए मकान टूटी हुई दरों-दीवारों ने सहेजी हैं करोड़ों दास्तान जिसे इतिहास कहता जहान। ©अलका मिश्रा ©alka mishra #दीवारें
Girraj Mehra
कि होश हकीकत में उनसे हमारी नजरें मिल गई थी 2 उनके पास पहुंची तो पहले से ही दिवारी जल गई थी। कोसते रहे हम हमारे नसीब को मगर वह तो पहले से ही किसी और की हो चुकी थी। ©Girraj Mehra दीवारें
Jha Pallavi Jha
दीवारें तो बहुत मिले हैं जिंदगी में कोई किनारा ना मिला कुछ पल चलने के लिए साथी तो मिले हैं पर उम्र भर साथ निभाने के लिए कोई हमसफ़र ना मिला रास्ते अब भी डगमगा रहे हैं पर हौसले को बुलंद करने के लिए किसी का सहारा ना मिल ©Jha Pallavi Jha #दीवारें
Shweta Duhan Deshwal
बेजुबान नहीं ये दीवारें, राज कई दबाए बैठी हैं।। ऐतिहासिक धरोहर हैं हमारी, इतिहास छुपाए बैठी हैं।। श्वेता दूहन देशवाल मुरादाबाद उत्तर प्रदेश ©Sweta Duhan Deshwal #दीवारें
Nilam Agarwalla
दीवारें खड़ी हैं घरों में, भाई भाई के बीच दीवारें खड़ी है समाज में मनुष्यों के बीच ऊंच नीच, छूआछूत, जाती वाद की । दिवारें खड़ी है व्यर्थ की रूढ़ियों की, जो स्त्रियों की प्रगति में बाधक है। तोड़ देनी है हमें ये दिवारे जो हमारे देश के विकास में बाधक है। हर व्यक्ति की राह में अवरोध पैदा करती है। ©Nilam Agarwalla #दीवारें