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Dilwali Kudi1712
अकथित रह गया। भावनाओं का सैलाब अप्रकटीत रह गया, रिश्ता चाँद तारो का अकथित रह गया। प्रेम का इज़हार भी हो स्थापित रह गया, आँखों से इकरार भी अकथित रह गया। प्रेम कही किसी का संघठित रह गया, वही प्रेम कही किसीका अकथित रह गया। प्रेम में विरह का दौर निपतित रह गया, कही किसी का विरह भी अकथित रह गया। धरा ओर गगन का मिलन अगतित रह गया, ख़्वाब ओ हकीकत का फर्क अकथित रह गया। प्रेम का आँचल पाना कही वंचित रह गया, हृदय की गहराइयों का दर्द अकथित रह गया। प्रेम कही किसीका अपराजित रह गया, फिर भी, प्रेम से प्रेम का सवांद अकथित रह गया। अकथित रह गया। N.D. (Nisha Dasadiya) #अकथित रह गया।।।
Shree
पता है! मैं अक्सर कहती रहती हूं हां-हां, मुझे सब पता है...! सच शायद कि कुछ नहीं पता है! तुम मुझे भूल तो नहीं पाओगे, पर, अगर जो समय खो दे मुझे, तो क्या तुम मुझे खोजने आओगे? या, बैठोगे उसी निर्मम के भरोसे, और इंतजार में गुजरने दोगे समय के अकथित आयाम? रचने दोगे समय को विरह वेदना, दोनों के हृदयों के लिए चुन सकते हो अंतराल, विराम की जगह, है ना? क्या चयन होगा उचित-अनुचित का? क्या समय से लड़ने को होगा थोड़ा समय तुम्हारे पास? कह दो ना, हां! 🍁🍂 समय 🌻🍃 _________________ पता है! मैं अक्सर कहती रहती हूं हां-हां, मुझे सब पता है...! सच शायद कि कुछ नहीं पता है! तुम मुझे भूल तो नहीं पा
Shruti Gupta
पुष्प की लता नहीं पर श्रमिक हूं मैं, शब्द ही मुझे मान लो, क्षणिक हूं मैं। तय नहीं कोई सफर कोई भी राह, क्या उचित और अनुचित भ्रमित हूं मैं। मन प्रभावित और अबोध इस कदर, लांघ देती प्रति मेढ़ को, ललित हूं मैं। प्रेम का गगन मुझे न रास आया, अब तो सर्वदा को ही पथिक हूं मैं। मेरे तन मन में प्रिय के आग को बुझने न दूंगी कभी, निश्चित हूं मैं! तन में मेरे सादगी पर भिन्न मन, एक प्रतिमा मैं नहीं, दो चरित्र हूं मैं। "कालजयी" की तुमको न पहचान है, काल सा ही जान लो, अकथित हूं मैं। For bettr view: पुष्प की लता नहीं पर श्रमिक हूं मैं, शब्द ही मुझे मान लो, क्षणिक हूं मैं। तय नहीं कोई सफर कोई भी राह, क्या उचित और अनुचित
amar gupta
पुष्प की लता नहीं पर श्रमिक हूं मैं, शब्द ही मुझे मान लो, क्षणिक हूं मैं। तय नहीं कोई सफर कोई भी राह, क्या उचित और अनुचित भ्रमित हूं मैं। मन प्रभावित और अबोध इस कदर, लांघ देती प्रति मेढ़ को, ललित हूं मैं। प्रेम का गगन मुझे न रास आया, अब तो सर्वदा को ही पथिक हूं मैं। मेरे तन मन में प्रिय के आग को बुझने न दूंगी कभी, निश्चित हूं मैं! तन में मेरे सादगी पर भिन्न मन, एक प्रतिमा मैं नहीं, दो चरित्र हूं मैं। "कालजयी" की तुमको न पहचान है, काल सा ही जान लो, अकथित हूं मैं। For bettr view: पुष्प की लता नहीं पर श्रमिक हूं मैं, शब्द ही मुझे मान लो, क्षणिक हूं मैं। तय नहीं कोई सफर कोई भी राह, क्या उचित और अनुचित
Shruti Gupta
मैं लिखना चाहती हूं अपनी कृतियों में सिंधुवों की निगलती उन लहरों को विकट शौक हो जिसका, विशाल सा रूप उसी विनाश के भय का, एक समरूप... मैं जोड़ना चाहती हूं अपने गीतों को पवन के उस सन्नाटे से की जो ठीक एक चक्रवात के परोक्ष स्थित रहता हो, जिसकी मौन किसी भी शोर से सर्व परे हो.. मैं लाना चाहती हूं अपने ग़ज़लों में दो रादीफों के मध्य की मूर्त वो ठहर जिसके यथार्थ होने पर तय हो दो प्रिय के मध्य के प्रेम का वो अकथित ध्वंस... मैं लिखित चाहती हूं अपने लेखन में वह सर्व प्राकृतिक सौंदर्य जिसके गुण अतुलनीय हो उसके रूप से - असाधारण जैसे स्याही से लिखी एक सामान्य सी कविता। मैं लिखना चाहती हूं अपनी कृतियों में सिंधुवों की निगलती उन लहरों को विकट शौक हो जिसका, विशाल सा रूप उसी विनाश के भय का, एक समरूप... मै
amar gupta
मैं लिखना चाहती हूं अपनी कृतियों में सिंधुवों की निगलती उन लहरों को विकट शौक हो जिसका, विशाल सा रूप उसी विनाश के भय का, एक समरूप... मैं जोड़ना चाहती हूं अपने गीतों को पवन के उस सन्नाटे से की जो ठीक एक चक्रवात के परोक्ष स्थित रहता हो, जिसकी मौन किसी भी शोर से सर्व परे हो.. मैं लाना चाहती हूं अपने ग़ज़लों में दो रादीफों के मध्य की मूर्त वो ठहर जिसके यथार्थ होने पर तय हो दो प्रिय के मध्य के प्रेम का वो अकथित ध्वंस... मैं लिखित चाहती हूं अपने लेखन में वह सर्व प्राकृतिक सौंदर्य जिसके गुण अतुलनीय हो उसके रूप से - असाधारण जैसे स्याही से लिखी एक सामान्य सी कविता। मैं लिखना चाहती हूं अपनी कृतियों में सिंधुवों की निगलती उन लहरों को विकट शौक हो जिसका, विशाल सा रूप उसी विनाश के भय का, एक समरूप... मै
Shree
यह मुंबई की दुनिया... यह मुंबई की दुनिया... खिड़कियों से झांकती.. यह अनकही, बेजुबान बेतरतीब हालात बताती झुंझलाई, थकी... कभी इठलाती हुई दुनिया! रंग-रंग की दीवारों