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कवि अजय जयहरि कीर्तिप्रद
बाल बाल ले आज डूबती कश्ती को दरीया से निकाल आया तूफाँ ; देखों बनके महाकाल चल चाल की दुश्मन हो जाये पस्त तभी बचेगें हम सब आज बाल बाल कवि अजय जयहरि कीर्तिप्रद बाल बाल.....कीर्तिप्रद
Kaushal Kumar
असली - नकली का भेद प्रिये, अब मुझसे ना होने वाला। बोलो क्यों केश करूँ काला।। असली में अब मैं तरुण नही, और न तुम ही अब तरुणी हो। फिर क्यों मिथ्या दिखलाने की, कोशिश में मुझ पर बिगड़ी हो। पैंतिस से पंद्रह दिखने का, श्रम मुझसे ना होने वाला। बोलो क्यों केश करूँ काला।। कोई कह दे मैं वृद्ध हुआ, तो कहने से कुछ फर्क नही। जो यही देखते फिरते हैं, उनसे मैं करता तर्क नही। सौंदर्यबोध कर वृत्तिनाश, अब मुझसे ना होने वाला। बोलो क्यों केश करूँ काला।। हाँ बात तुम्हारी दीगर है, सब तुमको क्रोध दिलाते हैं। तुमको कह वृद्धे की गृहणी, वृद्धा का बोध कराते हैं। पर फिर भी ऐसी बातों से, सच झूठ नही होने वाला। बोलो क्यों केश करूँ काला।। जो धवल रंग से नही मिले, यदि वह काले से मिल जाए। ऐसा क्षणभंगुर क्या पाना, जो चंद दिवस में हिल जाए। अंदर - बाहर से अलग - अलग, देखो मैं ना दिखने वाला। बोलो क्यों केश करूँ काला।। ©Kaushal Kumar #सफेद बाल-काले बाल