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Videh Agnihotri

कुछ खट्टे कुछ मीठे
पलों का संग्रह यह वर्ष..
आतातायी महामारी की
स्तब्ध श्मशान सी सुनसान पथ का पथिक
यह वर्ष.. 

नव वर्ष की किरण उगते ही
फूट पड़ा रक्त लालिम भोर प्रकाश
पर एकाएक आहिस्ता से क्रूर ववा
हवा वेग से अट्टाहास करने लगा
जीवन को सोख लेने की क्षमता
मृत्यु को भी मूक करने की क्रूरता
गरीब अमीर असहाय सामर्थ्यवानों को
समान रूप से मृत्यु पाश में बाँधने का रुदन
लालसाओं अभिलाशाओं तमन्नाओं
के दमन करने की चीख
इस महामारी ने बखूबी पसार दी..
सन्नाटे में भयाक्रांत रूप रेखित कर दिया
इंसा से इंसानियत खींचने की
नायाब कला इस क्रूर ववा में व्याप्त है..
इंसा को इंसानियत ख़त्म करने की
मजबूती से मजबूर करने की सनक व्याप्त है 

हतप्रभ स्तब्ध आँखों ने
देखे है मंज़र कई दिल देहलाने वाले
इस जटिल कश्मकश ने
मानव पटल से मिटा दी
हर संभव भावाकृतियाँ
चीख पुकार हताश विडंबनाओं के मध्यान
शवों का धू - धू जलना..
जलते शवों की राख में
भाव तोल, तोला माशा का
पूर्ण व्यापार बड़ी कुशलता पूर्वक
हुआ है और ये सब मंज़र
इन्हीं आँखों ने एकाएक देखा है..
शवों के बीच कोई शिव
शक्तिमान ना हुआ ! 

शिव तो सर्व शक्तिमान हैं
शिव से शक्ति बहिरमुखि
होकर प्रकट हो तो शिव शव हैं..
रण चंडी का विकराल रूप
इस महामारी को रेखांकित करता है
महामाया का रौद्र काव्य रूप
का एक छंद स्वरुप है ये महामारी
बेजुबानों पर आताताइयों का
निष्ठुर निर्मम निर्लज निष्प्राण करके
हत्याओं की ज़िम्मेदारी है महामारी
बेज़ुबान वराह को निर्ममता
से अपनी माँ के वक्ष से अलग कर
उसके वक्षस्थल को
भेदने का परिणामी है महामारी
उस माँ के स्तनों से
ममता के टपकने की
सिसक है यह महामारी
भू जल वायु के चर अचर को औपचारिक समझ
विशेषाचारिक से हटाने की
अनवधानी है महामारी
अपने दम्म को आकाश स्थित रख
असहाय बेजुबानों के दम घोंटने
की अशिष्टाचारी है महामारी 

एक शतक उपरान्त जब
रण चंडी रौद्रता को धारण करती हैं
श्वासविहीन सुनसान श्मशान
शवों पर अधीन होती हैं रण चंडी
उस काल खंड में तबाही का मंज़र
जब बीत चुका होता है
उस काल खंड की भरपायी को
प्रकृति को बर्बरता से खंड खंड करता है इंसान
वृक्षों की छाल को उधेड़ कर
कृत्रिमता को भरता है इंसान
प्रदूषण के स्याह अन्धकार को
जबरन सोख लेने पर मजबूर करता है इंसान 

ये वक़्त त्राहिमाम की आड़ में
षड़यंत्रों को उकेरने का नहीं
बल्कि यह समय सुनहरे अवसर को ग्रहण कर
कुंठित कंठ स्वर से
क्षमा शील धारण करने का है
ग्लानी अनुताप संग प्रायश्चित
के नियम का अनुसरण करने का है
भोरोदय सांजोदय को नवीन तेजस कर
आशीष ग्रहण करना है
फिर एक ओजस प्रभात
फिर एक अलौकिक प्रमान घटित होगा
रेणुका को मस्तक पर लगा
इंसा अनुग्रहीत होगा
न वध न हिंसा न रक्त प्रलाप सर्वत्र होगा
एकाएक शान्ति
ॐ शांति ॐ शांति ॐ शांति 

: विदेह अग्निहित्रीll

©Videh Agnihotri Videh Agnihotri

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