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Sachin Ratnaparkhe

जिसे हमने वफादार समझा, असल में वो ही गद्दार निकले। और अभी फिर दोहराता हूं कि, देश के गद्दारों को, गोली मारो सालो को। अगर वो मुसलमान है तो दो गोली मारो अगर वो हिन्दू है तो चार गोली मारो मगर गद्दारों को गोली तो मारो। #दिल्ली_हिन्दू_विरोधी_दंगे

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जिसे सुनियोजित तरीके से किया जाए,
उसे दंगा नहीं नरसंहार कहते है 
और दिल्ली में वहीं हुआ है हिन्दुओं के खिलाफ।

अब कुछ का तर्क है कि 

मरने वाले उधर के भी है...
हा बिल्कुल है, लेकिन एक भीड़( बीबी बच्चे समेत) जो पूरी योजना में संलिप्त थी जिसने पत्थर और पेट्रोल इकठ्ठा कर रखे थे, हिन्दुओं के घर दुकान को चिन्हित किया हुआ था, जो यह सोच कर निकले थे आग लगानी है जान लेना है। उस जिहादी भीड़ को आत्मरक्षा के लिए उठी हिन्दुओं कि भीड़ के समकक्ष रखना धूर्तता के अलावा और कुछ नहीं है।
 जिसे हमने वफादार समझा,
असल में वो ही गद्दार निकले।

और अभी फिर दोहराता हूं कि,
देश के गद्दारों को, 
गोली मारो सालो को। 
अगर वो मुसलमान है तो दो गोली मारो अगर वो हिन्दू है तो चार गोली मारो मगर गद्दारों को गोली तो मारो।

Sachin Ratnaparkhe

यह कविता व्यंगतामक है जो कुंभकरण की नींद सोते हुए एवम् अपनी दुनिया में खोए हुए हिन्दुओं के प्रति कटाक्ष करती है जिन्हे अपनी अस्तित्व की कोई फिक्र नहीं है। दिल्ली दंगा सुनियोजित तरीके से की गई हिंसा है। अब कर भी क्या सकते है? महज अफवाह पर आधारित विरोध जिसे वामपंथियों ने शुरू कराया और उसी विरोध की सुलगती हुईं चिंगारी को हवा देकर आग में तब्दील कर दिया गया। यह करतूत है उन कट्टर मुसलमानों और सेक्युलर हिन्दुओं की जो इस देश में खून खराबा करने में कोई गुरेज नहीं है। आखिर वो है ही खून के प्यासे जो किसी #दिल्ली_हिंसा #दिल्ली_हिन्दू_विरोधी_दंगे #delhiantihinduriot #caasupport

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एक कविता दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगे के खिलाफ

नफ़रती आग का तुम मजा लीजिए
अपनी आंखो में आंसू सजा लीजिए,
लाशे बिछती रही और तुम सोते रहे,
मुफ्त में बंट रही वो क़ज़ा लीजिए।

उनसे तुम्हारी लाचारी देखी न गई,
तुमसे तुम्हारी तरफदारी पूछी न गई,
तुम यह वाले हो या फिर वो वाले हो,
मौत देने से पूर्व जानकारी की न गई।

जो सामने आया उनके वो मरते चले,
इक कौम का सफ़ाया वो करते चले,
तुम सोते रहो तुमको फर्क क्या,
वो मारते चले ओ तुम मरते चले।

उनको कभी नहीं था तुमसे कोई वास्ता,
तुमने खुद ही चुना था पतन का रास्ता,
तुम संपोलो को दूध पिलाते रहे मगर,
मौका पाते ही पार कर दी पराकाष्ठा।

तुम उनकी नज़रों में काफ़िर ही हो,
तुम अलग रास्तों के मुसाफिर ही हो,
वो चलते है जब ऐसे चलते है वो,
जैसे लेकर तुम्हारी मौत हाज़िर हो। यह कविता व्यंगतामक है जो कुंभकरण की नींद सोते हुए एवम् अपनी दुनिया में खोए हुए हिन्दुओं के प्रति कटाक्ष करती है जिन्हे अपनी अस्तित्व की कोई फिक्र नहीं है।

दिल्ली दंगा सुनियोजित तरीके से की गई हिंसा है। अब कर भी क्या सकते है? 
महज अफवाह पर आधारित विरोध जिसे वामपंथियों ने शुरू कराया और उसी विरोध की सुलगती हुईं चिंगारी को हवा देकर आग में तब्दील कर दिया गया। यह करतूत है उन कट्टर मुसलमानों और सेक्युलर हिन्दुओं की जो इस देश में खून खराबा करने में कोई गुरेज नहीं है। आखिर वो है ही खून के प्यासे जो किसी


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