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Nikunj Vitthalbhai Parekh

"The spiritual process is not about going to heaven at any time. It is about the experience of life as a whole. It is a real process for him." "आध्यात्मिक प्रक्रिया किसी भी समय स्वर्ग जाने के बारे में नहीं है। यह समग्र रूप से जीवन के अनुभव के बारे में है। यह उसके लिए वास्तविक प्रक्रिया है।" - निकुंज पारेख #nikunj_parekh #gujju_quotes

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"The spiritual process is not about going to heaven at any time. It is about the experience of life as a whole. It is a real process for him."

"आध्यात्मिक प्रक्रिया किसी भी समय स्वर्ग जाने के बारे में नहीं है। यह समग्र रूप से जीवन के अनुभव के बारे में है। यह उसके लिए वास्तविक प्रक्रिया है।"

- निकुंज पारेख "The spiritual process is not about going to heaven at any time. It is about the experience of life as a whole. It is a real process for him."

"आध्यात्मिक प्रक्रिया किसी भी समय स्वर्ग जाने के बारे में नहीं है। यह समग्र रूप से जीवन के अनुभव के बारे में है। यह उसके लिए वास्तविक प्रक्रिया है।"

- निकुंज पारेख #nikunj_parekh #gujju_quotes

Seema Thakur

#OpenPoetry *#माहवारी_को_टालना_खतरे_की_घंटी* 

मैं जिस विषय पर आज बात करना चाहती हूँ वह आज के दिन देश में चल रहे कुछ अति वायरल मुद्दों जितना प्रसिद्ध नहीं है किंतु देश की आधी आबादी के स्वास्थय से जुड़ा है इसलिए देश के लिए अति महत्तवपूर्ण है। 

देश की आधी आबादी यानी मातृ शक्ति, माँ..........यानी संतानोपत्ति की अहम क्रिया, यह क्रिया जुड़ी है माहवारी से। माहवारी, वह प्रक्रिया जिसके अभाव में कदाचित् सृष्टि का क्रम ही रुक जाता। आज इस एक शब्द को टेबू के रूप में कुछ इस तरह इस्तेमाल किया जाता है कि आधुनिक पीढ़ी या यूँ कहूँ नारीवादी लोग खून सना सेनेटरी पेड हाथ में लेकर फोटो खींचवाना, नारी सम्मान का पर्याय समझते हैं। 

कुछ ऐसे परम्परावादी लोग भी है जो काली पॉलीथीन में सेनेटरी पेड को लेकर जाने, उन खास दिनों में महिलाओं और बच्चियों के अलग रहने, घर के पुरुषों से इस बात को छिपाने आदि की वकालत करते हैं। 

इन दोनों ही समूहों ने, धड़ल्ले से दिखाने और सबसे छिपाने के बीच की एक कड़ी को पूर्णतया गौण कर दिया है। यह कड़ी है तीज-त्यौहार एवं शादी-ब्याह के अवसरों पर माहवारी के समय महिलाओं की मनःस्थिति। 

कुछ वर्ष पहले तक बहुत अच्छा था क्योंकि विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी कि इस प्राकृतिक प्रक्रिया को रोका जा सके या कुछ दिन के लिए स्थगित किया जा सके। 

न जाने इस खतरनाक आविष्कार के पीछे क्या अच्छी मंशा रही होगी यह तो मैं नही जानती किंतु आज हर पाँचवी औरत इस आविष्कार को लाख दुआएँ देकर अपनी जिंदगी से समझौता कर रही है। 

जी हाँ, शायद आप ठीक समझ रहे हैं। मैं बात कर हूँ उन दवाइयों की जो माहवारी के समय के साथ छेड़छाड़ करने के लिए ली जाती है। मासिक धर्म दो हार्मोन्स, एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरॉन पर निर्भर करता है। ये दवाइयाँ इन हार्मोन्स के प्राकृतिक चक्र के प्रभावित करती है और माहवारी स्थगित हो जाती है। मजे की बात यह भी है कि कोई भी चिकित्सक कभी किसी महिला को ये दवाइयाँ खाने की सलाह नहीं देता, आत्मिक रिश्ते के कारण दे भी देता है तो अपनी पर्ची में लिखकर नहीं देता क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह से इनके दुष्प्रभावों को जानता है। 

विडम्बना किंतु यह है कि हर एक फार्मेसी पर ये धड़ल्ले से बिकती है। महिलाएँ अन्य किसी दवा के बारे में जाने या न जाने इस दवा के बारे में अवश्य जानती है क्योंकि यह उन्हें अपनी पक्की सहेली लगती है जिसके दम पर वे नियत दिन (सोमवार को, यदि माहवारी का समय हो तो भी) शिवजी के अभिषेक कर सकती है, वैष्णो देवी की यात्रा कर सकती है, छुट्टी में दो दिन के लिए घर पर आये बच्चों को उनकी पसंद के पकवान बनाकर खिला सकती है, देवर या भाई की शादी में रात-दिन काम कर सकती है, दिवाली के दिन उसे घर के अंधेरे कोने में खड़ा नहीं होना पड़ता, वह अपने हाथों से दीपक जला सकती है, होलिका दहन की खुशी में मिठाई बना सकती है, केदारनाथ, बद्रीनाथ की पूरे संघ के साथ यात्रा कर सकती है, सम्मेद शिखरजी का पहाड़ चढ़ सकती है। 

और भी न जाने कितने कार्य जो माहवारी के दौरान करने निषेध है वे य़ह एक दवा खाकर बड़े आराम से कर सकती है। सहूलियत इतनी है कि वह अपनी मर्जी के हिसाब से चाहे जितने दिन अपनी माहवारी को रोक  सकती है। मेरे अनुभव के अनुसार शायद ही कोई महिला मिले जिसने यह दवा न खाई हो (मैं भी इसमें शामिल हूँ।) 

सवाल यह है कि यह एक दवा जब सब कुछ इतना आसान कर देती है तो फिर मुझे क्या आपत्ति है। विज्ञान के असंख्य चमत्कारों में यह भी महिलाओं के लिए एक रामबाण औषधि मानली जानी चाहिए और एक दो प्रतिशत महिलाएँ जो कदाचित् इसकी जानकारी नहीं रखती है, उन्हें भी इसके लिए अवगत करवा दिया जाए। 

लेकिन नहीं, यह बहुत खतरनाक है। उतना ही जितना देह की स्वाभाविक क्रिया शौच और लघुशंका को किसी कारण से रोक देना। ये दवाइयाँ महिलाएँ इतनी अधिक लेती है कि कभी कभी तो लगातार दस से पंद्रह दिन भी ले लेती है। सबसे अधिक इन दवाइयों की बिक्री त्यौहार या किसी धार्मिक अनुष्ठान के समय होती है। एक रिसर्च बताती है कि भादवे के महीने में आने वाले दशलक्षण पर्व के दौरान पचास फिसदी जैन महिलाएँ इन दवाइयों का इस्तेमाल करती है जिससे वे निर्विघ्न मंदिर जा सके, अपनी सासू माँ के लिए शुद्ध भोजन बना सके, पति को दस दिल फलाहार करा सके। 

कितनी नादान है जानती ही नहीं है कि वे कितनी बड़ी-बड़ी बीमारियों को न्यौता दे रही है। ये वे महिलाएँ है जो बहुत खुश रहती है, जिन्हें किसी भी नशीले पदार्थ को बचपन से भी नहीं छुआ है, खानपान में पूरा परहेज रखती है पर एक दिन ये दिमागी बीमारियों की शिकार हो जाती है। ब्रेन स्ट्रोक जिनमें सबसे कॉमन बीमारी है। कब ये महिलाएँ अवसाद का शिकार होती है, कब कोमा में चली जाती है, कब आत्म हत्या तक के फैसले ले लेती है कोई जान ही नहीं पाता। 

केवल इसलिए क्योंकि इन्हें बढ़-चढ़ कर धार्मिक और सामाजिक क्रियाओं में भाग लेना था, केवल इसलिए क्योंकि ये अपनी सासू माँ से नहीं सुनना चाहती थी, “जब भी काम होता है तुम तो मेहमान बनकर बैठ जाती हो”, केवल इसलिए कि ये त्यौहार के दिनों में अपनी आँखों के सामने घरवालों को परेशान होते नहीं देख सकती। 

मैं आज आपसे इस बारे में बात नहीं कर रही कि माहवारी के दौरान रसोई घर और मंदिर में प्रवेश करना सही है या गलत। यह टी आर पी बटोरने वाला विषय है, इस पर अनेकों बार चर्चा हो चुकी है और आगे भी हो जायेगी। 

मैं आज केवल आपसे इतनी ही विनती करूँगी कि उन खास दिनों में आपके घर की मान्यता के अनुसार आपका यदि मंदिर छूटता है तो छोड़ दीजिये पर कृपया इन दवाइयों को टा टा बाय बाय कह दीजिये। खुदा न करे कि इन गंभीर बीमारियों को झेलने वाली सूची में अगला नम्बर आपका हो जिनका कोई इलाज ही नहीं है। 

मेरी एक परिचिता को आज ही इनकी वजह के ब्रेन स्ट्रोक हुआ है इसलिए मैंने सारे काम छोड़कर यह लिखना जरुरी समझा। पहले से भी मैं ऐसे कई केस जानती हूँ जिनमें लगातार दस दिन ये दवाइयाँ खाने वाली महिला आज कोमा में है और उसकी आठ वर्ष की बेटी उसे सवालिया निगाहों से घूरकर पूछती है, “मम्मी आप कब उठोगी, कब उठकर मुझे गले लगाओगी।” एक परिचिता औऱ है जो अतीत में इन दवाइयों का अति इस्तेमाल करके तीस वर्ष की उम्र में ही मोनोपॉज पा चुकी है और आज उसके दिमाग की नसों में करंट के वक्त बेवक्त झटके लगते हैं जिन्हें सहन करने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं है। 

क़पया इस पोस्ट को हल्के में न ले। 

मैं नहीं कहूँगी कि जहाँ तक हो इन दवाइयों से बचे, मैं कहूँगी कि इन दवाइय़ों को कतई न ले। ईश्वर की पूजा हम मन से करेंगे तब भी वह हमारी उतनी ही सुनेगा जितनी हमारी जान को जोखिम में डालकर उसके प्रतिबिम्ब के समक्ष हमारे द्वारा कि गई प्रार्थना से सुनेगा। 

कदाचित् तब कम ही सुनेगा क्योंकि उसे भी अफसोस होगा कि मेरे द्वारा दी गई देह को यह मेरे ही नाम पर जोखिम में डाल रही है। मैं डॉक्टर नहीं हूँ पर मैंने विशेषज्ञों से बात करके जितनी जानकारी जुटाई है उसका सारांश यही है कि इन दवाइयों का किसी भी सूरत में सेवन नहीं करना चाहिए। मैं तो कहती हूँ कि एक आंदोलन चलाकर इन्हें बाजार में बैन ही करवा दिया जाना चाहिए जिनके कारण भारत की हर दूसरी महिला पर संकट के बादल हर समय मंडराते रहते हैं। 

मैं आम तौर पर कोई भी पोस्ट रात को नहीं करती पर आज मेरी परिचिता के बार में सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पा रही हूँ और अभी यह पोस्ट कर रही हूँ। निवेदन के साथ कि आप इसे अधिक से अधिक शेयर करे। हर एक लड़की भले वो आपकी पत्नी हो, माँ हो, प्रेमिका हो, बहन हो, बुआ हो, बेटी हो, चाची हो, टीचर हो अवश्य पढ़ाये......और मेरी जितनी बहनें इसे पढ़ रही है, वे यदि मुझसे बड़ी हो तो मैं उनके चरण स्पर्श करके करबद्ध निवेदन करती हूँ कि वे कभी इन दवाओं का सेवन न करे और यदि मुझसे छोटी है तो उन्हें कान पकड़कर कर सख्त हिदायत देती हूँ कि वे इन दवाओं से दूर रहे। 
............................Seema

anamika

खुश हूँ क्यूंकि,  तुमसे मिलके मैं खुश हो जाती हूँ
ये मन की एक दशा है
ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे चले जाने के बाद
मैं उदास हो जाती हूँ
ये मन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है #Khushi #nojotohindi #प्रक्रिया

Gokul Tapadiya

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# घटस्फोट : मुलाचीही बाजू!

‘घटस्फोटिता’ म्हणून स्त्रियांना सहन करावे लागणारे दु:ख आणि अपमान हळूहळू कमी होत आहेत आणि मुलीही याकडे अधिक वास्तवतेने पाहत आहेत. तसेच समाजही घटस्फोटाकडे सकारात्मकतेने पाहत आहे 

 ‘घटस्फोट’ ही मुलगा व मुलगी त्याचबरोबरच त्यांचे आई-वडील, नातेवाईक जवळचे स्नेही सर्वानाच क्लेष देणारी बाब असते. घटस्फोटाच्या प्रक्रियेतून जाणाऱ्या मुलाचे/पुरुषाचे दु:ख व वेदनाही लक्षात घ्यावयास हवी. या अनुभवातून जाणाऱ्या  अनेकांची वेदना कोर्टात जाणवली आणि सहवेदनेतून संवादही झाले, त्यातून बदलत्या समाजाने लग्नाकडे पहाण्याच्या दृष्टीचे प्रखर वास्तव चटके देऊन गेले व जात आहे.

घटस्फोटातून जाणारे मुलगे तिशीच्या आसपासचे आहेत (बहुसंख्येने हा वयोगट दिसतो कोर्टात). त्यापैकी अनेकांना चांगले पगार आहेत. करिअरच्या दृष्टीने त्यांची विचारसरणी नेमकी आहे. सहमती घटस्फोटासाठी तयारी ठेवणारे आहेत, त्यामुळेच अनेक जण याला तयारही होत आहेत, पण त्यामागचे अजूनही एक सत्य लक्षात घ्यायला हवे ते असे की, या ‘सहमती’साठी मुली कित्येक लाखांची मागणी करताना दिसत आहेत. त्याला पालक व वकीलदेखील काही अंशी साथ देत आहेत. कायदा मुलींच्या दृष्टीने झुकते माप देणारा असल्याने मुलांची ‘अडवणूक’ करून कित्येक लाखांतच सहमती दिली जाते आहे. एवढी गलेलठ्ठ रक्कम (एकरकमी पोटगी/ अलीमनी) मिळते . हा तर झटपट श्रीमंतीचा मार्ग सापडल्यासारखे बऱ्याच मुली करत आहेत. मुला-मुलींत मतभेद असतील तर किती आई-वडील याचा समंजसपणे विचार करतात हे पाहण्याजोगे आहे. इतके लाखो रुपये व मनस्ताप मोजल्यानंतर त्या मुलाची या विवाहातून सुटका झाली तरी हा मुलगा खरच विश्वासाने दुसऱ्या विवाहाकडे पाहू शकेल का? तर नाही हेच उत्तर असावे. याशिवाय त्या मुलाला पुन्हा आर्थिक, मानसिक जबाबदारीने दुसऱ्या विवाहाकडे जावे लागते, तर मुलीला आर्थिक पाठबळ मिळालेले असते आणि सामाजिक सहानभूतीसुद्धा! 

बऱ्याच वेळेला अशा एकरकमी पोटगी घेणाऱ्या मुली पुन्हा लवकर स्थिरस्थावर होत असल्याचे दिसते.

घटस्फोटात ‘स्त्रीधना’चाही विषय असतो. लग्न करताना दोन्हीकडचे नातेवाईक आपल्या परीने दागदागिने देऊन लग्न करतात. तेव्हा घटस्फोट होईल असे कोणाच्याच मनात नसते. त्यामुळे एकुलत्या एका मुलीला/ सुनेला घरातले पारंपरिक व स्वत:कडीलदेखील दागदागिने घातले जातात. मात्र घटस्फोट प्रक्रिया सुरू झाली की त्यातल्या प्रत्येकावर मुलीचा हक्क शाबीत केला जातो. खरे तर हा मुलगा नवरा म्हणून नको तर त्याच्याकडचे दागदागिने, पारंपरिक चीजवस्तू का हव्यात? मुलीपण कमावत्या आहेत पण किती जणी खरेच हे सर्व समजून सोडतात याचा विचार न्यायालयात होतो का?  

मुलाच्या घटस्फोटात त्याच्या आई-वडिलांच्याही जिवाची घालमेल होत असते. त्यांचे दु:ख, अवहेलना, अडवणूक यात त्यांना साथ देणारे कमीच असतात. खरे तर त्यांच्यासाठीपण ‘साहाय्यक गट’ कार्यरत करावे लागणार आहेत. कारण त्यांना गुन्हेगार समजून कधी ४९८चा धाक दाखवून तर कधी खोटय़ानाटय़ा आरोपांनी वकील मंडळी घायाळ करत असतात. घरी आलेल्या मुलीला घरातील पद्धती/ चालीरीती/ विचार सांगितले तर त्या मुलीचा मानसिक छळ, बळजबरी, कौटुंबिक व घरगुती हिंसाचार इ. नवनवे आरोप झेलून त्यांचे खच्चीकरणच होते. नव्या पिढीला हस्तक्षेप नको पण तो कोणत्या टोकापर्यंत हे समजायच्या आतच सारे घडते आहे. अशा वेळी किती मुलींचे पालक संतुलित भूमिका घेत आहेत याचा विचार करण्याची वेळ आली आहे. मुली जर सुज्ञ असतील तर हे सहजतेने सुटणार नाही का? कायदेशीर प्रक्रिया चालवणारे आणि आपल्या  मुलीला गलेलठ्ठ भरपूर एकरकमी पोटगी व स्त्रीधन मिळवून देणाऱ्या सर्वानी संधीसाधूपणा सोडून न्यायतेने विचार करण्याची वेळ आली आहे. अन्यथा अनेक मुली घटस्फोट हाच झटपट श्रीमंतीचा मार्ग स्विकारून तरुण मुलांची लूट करण्यास कचरणार नाहीत आणि त्यातून अनेक समाजस्वास्थ्याचे प्रश्न निर्माण होत राहतील, यात शंका नाही...
पहा हेच सध्या च्या वेळी जास्तीत जास्त पहावयास मिळत आहे ...

Ramandeep Kaur

भाग 3: "स्वयं के वास्तविक रूप में आनंदित रहना"
🍁यूं देखा जाए  तो Meditation एक बहुत विस्तृत विषय है, जिसके बारे में अनेकों विद्वानों ने कई तरह से वर्णन किए हैं और निश्चित तौर पर इस विषय पर  बहुत सा study material भी उपलब्ध है।
 🍁पर, यहां हमारा मकसद practical तौर पर सरल भाषा में, सरल तरीके से इस प्रक्रिया को समझते हुए अपने जीवन का हिस्सा बनाना है। क्योंकि ध्यान स्वयं के आंतरिक विकास की प्रक्रिया है।
🍁तो हिसाब से ध्यान करते समय हम खुद से साक्षात्कार कर रहे होते हैं। उन लम्हों में हम पूरी तरह अपने वास्तविक रूप के संपर्क में होते हैं। 
                                                                    continue.......  #NojotoQuote #SitForMeditation


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