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Anand Paras
मस्त जवानी सरपट दौड़ै पस्त बुढ़ापा डेगे डेग। बेटा पुतहु भिन्न भय गेलै कटतै कहुना जिनगी शेष। @Anand🙏 ©Anand Paras #agni मस्त जवानी सरपट दौड़ै पस्त बुढ़ापा डेगे डेग। बेटा पुतहु भिन्न भय गेलै कटतै कहुना जिनगी शेष। @Anand🙏 #लाइफ #viral #shayari #trendin
Mamta Singh
ये मच्छर बहुत खतरनाक है याराे ये न डेगूं फैलाता है न मलेरिया ये ताे उससे भी खतरनाक बीमारी फैलाता नाम है जिसका लभेरिया अच्छा खासा इन्सां नकारा हाे जाता है सीधे कहाे ताे बेचारा हाे जाता है इसकी मिलती नहीं कहीं दवाई है कम्बख्त जाे काटता वही करता ओझाई है ये सूरत के हाेते बड़े भाेले है ये जुबां से नहीं अँखियाें से बाेले है इन मच्छराें पर हाेती है हर दवा बेअसर याराे काेई hit माराे या मच्छरदानी लगा लाे 😂😂😂😂😂😂😂😂 मच्छर#मलेरिया#डेगू#yqbaba#yqdada#yqdidi#yqlove#yqhin
Jaichand Kumar
गज़ल रोज हमरा के देलू जहर ज़िन्दगी तू त बाड़ू अजब हमसफ़र ज़िन्दगी डेगे डेगे पे लाग ता ठेस्वा इहाँ बड़ कठिन बा ई जीवन डगर ज़िन्दगी रूप सुंदर बा कितना, कहे हर कोई आव तोहर उतारीं नज़र ज़िन्दगी रात रानी इहां कवनो कइसे खिले तोहरा अंगना में बा दुपहर ज़िन्दगी साथ तोहरा से छूटे ना कबहूं हमार मांगिले ई दुआ हर पहर ज़िन्दगी हम निभावत रहब तोहसे हरदम वफ़ा तू हो फिरिह ना हमसे नज़र ज़िन्दगी "आरती" हंसते हंसते मिलइहन नज़र मौत के कर द तू ई खबर ज़िन्दगी।। - जयचंद कुमार। गज़ल रोज हमरा के देलू जहर ज़िन्दगी तू त बाड़ू अजब हमसफ़र ज़िन्दगी डेगे डेगे पे लाग ता ठेस्वा इहाँ बड़ कठिन बा ई जीवन
S. Bhaskar
बाबा नगरिया हो चल हो भाई चल, बाबा नगरिया हो, भगवा रूप धर, चल बन के कावरिया हो। चल हो भाई -२ गंगा तीरे पानी भर, कांवड़ उठाव हो, चल डेगारे चल, बोल बम गाव हो, बाबा धाम चल के जलवा चढाव हो, चल बन के कावरिया हो। चल हो भाई चल -२ नंदी के काने बोली, भक्तन के सुन लो पुकार हो, बाबा के दुवरिया बानी, जल ले के खाड़ हो, भोर से तकाताड़न दर्शन तोहार हो, चल बन के कावरिया हो। चल हो भाई चल -२ चढ़ते सूरज चल, रास्ता बा लंबा ठाढ़ हो, सब रास्ता पे बिछल बेटे, बाबा के आड़ हो, बोल बम के गाव गीत भक्ति आपार हो, चल बन के कावरिया हो। चल हो भाई चल -२ बाबा नगरिया हो चल हो भाई चल, बाबा नगरिया हो, भगवा रूप धर, चल बन के कावरिया हो। चल हो भाई -२ गंगा तीरे पानी भर, कांवड़ उठाव हो, चल डेगारे च
रजनीश "स्वच्छंद"
काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता। स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छित पड़ी। अहं स्वर है कर्ण भेदता, है वाणी लज्जित खड़ी। वनचर मनुज के भेष में, दम्भ पाले ललकारता, आडंबरों के युग मे चित बैठ अंदर धिक्कारता। किसी अश्वमेधी यज्ञ का बन अश्व सरपट भागता, निर्बल सबल सब भेदहींन, बढ़ रहा सबको धांगता। जीवात्मा नेपथ्य से, है कराहता और पुकारता। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। किसके उदर का एक निवाला धूलधूसरित हो रहा, अनाजों के ढेर चढ़, रोटियों का ही गणित हो रहा। इस समर में था कौन जीता, कौन था तटस्थ बना, पाप है या पुण्य है ये, एक दूजे में था समस्त सना। धन की बोरी कोई लादे, कष्ट कोई झुक है ढो रहा, पाप कालिख है अब नहीं, जा गंगा में सब धो रहा। रहे कब तलक वो मूक बैठे, है उठ अब हुंकारता। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। बस किनारे बैठ कर, जलधार की थी विवेचना, मन भटकता मझधार में और सो रही थी चेतना। गहराई को मापा नहीं, थाह नहीं कोई वेग की, स्वप्नसज्जित लालसा, कमी रही एक डेग की। ले लेखनी लिख रहा, मैं आज मनुज के हार को, टाल मैं जाऊं कहीं, इसके भावी समूल संहार को। मैं भविष्य हूँ देखता, कागज़ पे उसे हूँ उतारता। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। ©रजनीश "स्वछंद" काल सर्प।। प्रतिकूल है बेला खड़ी, है काल सर्प फुंफकारता। विकल मन पंछी हुआ, अंतर्मन भी है दुत्कारता। स्वार्थलोलुप मनु संतति, है आत्मा मूर्छि