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अम्बुज बाजपेई"शिवम्"
हाथों में जिम्मेदारियों के हैण्डल को थामे, पैरों से मुश्किलों के जैसे पैडल को धकेलते हुए। मैंने देखा एक जीर्ण-शीर्ण काया को, तीन पहियों पर अपनी दुनिया चलाते हुए। Pic_credit:- Google.in हाथों में जिम्मेदारियों के हैण्डल को थामे, पैरों से मुश्किलों के पैडल को धकेलते हुए। मैंने देखा एक जीर्ण-शीर्ण काया क
Sarita Shreyasi
पुरानी आलमारी से, स्कूल के दिनों के कुछ जीर्ण-शीर्ण किताब निकले, किताब क्या थे,कहिए कि मुस्कुराते बचपन के बिसरे ख्वाब निकले, गर्द भरे पीले पन्नों से, नादान ख्वाहिशों के सूखे महकते गुलाब निकले, जी चाहा,अंधेरे में ठंडी राख से आज फिर कोई माहताब निकले। पुरानी आलमारी से,स्कूल के दिनों के कुछ जीर्ण-शीर्ण किताब निकले, किताब क्या थे,कहिए कि मुस्कुराते बचपन के बिसरे ख्वाब निकले, गर्द भरे पीले पन
Anita Saini
तुम जानते हो ना जीर्णोद्धार हो जाता है हर ऐतिहासिक जीर्ण शीर्ण स्तंभ या किले द्वार और राजप्रासाद आदि का। होते देखा होगा ना उनका नवीनीकरण! भूतकाल की त्रुटियों का कभी जीर्णोद्धार नहीं कर सकते! शेष रह जाती हैं, त्रुटियाँ भग्नावशेष होती हैं भूतकाल की! जीर्ण-शीर्ण स्मृतियाँ! शेष रहती हैं ! उनके कुछ छोर भग्नावशेष के रूप में वर्तमान के सिरे से बँधे रह जाते हैं! तुम जानते हो ना जीर्णोद्धार हो जाता है हर ऐतिहासिक जीर्ण शीर्ण स्तंभ या किले द्वार और राजप्रासाद आदि का। होते देखा होगा ना उनका नवीनीकरण!
CM Chaitanyaa
सृजन करना किसी वस्तु का आसान बात नहीं, जैसे कोई स्त्री नौ मास तक रखती है गर्भ में, शिशु को ठीक वैसे ही एक कलाकार भी तो, अपने मस्तिष्क रूपी गर्भ में सहेज रखता है, उन सभी विचारों को जो ही जन्म देते हैं फिर, कला रूप में एक शिशु को करते हैं पालन, सींचते हैं उन्हें उतने प्रेम से एक माँ की तरह, जैसे भक्ति देख न सकी थी ज्ञान वैराग्य बूढ़े, उसी तरह कलाकार भी तो नहीं देख सकता, अपनी कला को जीर्ण-शीर्ण और माँगता है, अनश्वर भीख क्योंकि वो माँ नहीं देख सकती, उस शिशु को बलि चढ़ते हुए ! सृजन करना किसी वस्तु का आसान बात नहीं, जैसे कोई स्त्री नौ मास तक रखती है गर्भ में, शिशु को ठीक वैसे ही एक कलाकार भी तो, अपने मस्तिष्क रूप
Pushpvritiya
बदला तो ज्यादा कुछ नहीं था, हाँ.......कुछ सड़कें पक्की हो गई थी, "फूस" की जगह छप्परों पर "खपरैल" आ गए थे..... नाशपाती के बागानों के "बाड़" ऊंचे हो गए थे और महाशय की "आई बी" जीर्ण शीर्ण मिली..... अरे हां और वो काका काकी..जो लकड़ी के चुल्हे पर की दाल पकाकर ला दिया करते थे, समय चक्र ने उन्हें लील लिया था.... एक और बात गौरतलब थी.. .बंदरों की "संतति" आशातीत बढ़ी थी...और व्यवहार "मानवीय" लग रहे थे.... बच्चों का "उत्साह" वैसा ही जैसा "तेरह वर्ष" पहले मेरे भीतर था..... नेतरहाट की "यात्रा".... "महाशय" के साथ.... "बाइक" पर.... "हमारा बजाज" के ऐड पर "अभिनय" करते हुए........ वही जंगलों-पहाड़ों के मध्य से गुज़रते रास्ते.... वही "सुकून" की हवा....वही "शांति" की अनुभूति....वही "सूर्यास्त"...कुछ सिखाता हुआ....वही "सूर्योदय".....कुछ जगाता हुआ.... "नेतरहाट....एक संस्मरण" वर्षों पूर्व लिखने की "सोची" थी...उस सोच को "शब्द" मिले "कच्चे-पक्के" से...... कुछ "भुल" गई.... कुछ "याद" रहा...कुछ "समेट" लाई...कुछ "छूट" गया........ @पुष्पवृतियां . . ©Pushpvritiya बदला तो ज्यादा कुछ नहीं था, हाँ.......कुछ सड़कें पक्की हो गई थी, "फूस" की जगह छप्परों पर "खप
Insprational Qoute
विरह के योग में जी कर भी खत पिया को लिख रही, वापसी का कोई पता नही फिर भी राह को तक रही, सम्पूर्ण गीत अनुशीर्षक में पढ़े विरह के योग में जी कर भी खत पिया को लिख रही, वापसी का कोई पता नही फिर भी राह को तक रही, नैनो में बहती अश्रु की धार है, पलकों पर सजा इंतजार
Pnkj Dixit
#OpenPoetry 🌷... धर्म प्रिय 🌷 प्रेम करना सुहृदय का कर्म प्रिय । रेगिस्तान में सागर - सा भ्रम प्रिय । प्रेम जल बिन तरसता कमल प्रिय । प्रेम के विरूद्ध है लेखनी ब्रह्म प्रिय । स्वप्नों में अहसास की ज्योति प्रिय । स्वाति नक्षत्र में सीप का मोती प्रिय । मन यायावर प्रकृति का विचरण कर । आत्मीय प्रेम रस रंग प्रसंग धर्म प्रिय । सुन्दर मन का सुंदर वन चन्दन बनूँ प्रिय । सु हृदय का प्रेम पा, पारस वन्दन बनूं प्रिय । पूर्णिमा नवल धवल चाँदनी का शशि नन्दन शिशु समाना प्रेम पथिक का उर मर्म प्रिय । एक रंग - वर्ण , एक देश - जाति - धर्म प्रिय । सुकोमल जीवन कलि - पुष्प पाँखुरी नरम प्रिय । विष का वास , कर विश्वास , कह , परम प्रिय । मिलन असंभव ,रीति - रिवाज समाज धर्म प्रिय । स्व जननी - जनक विरूद्ध पग ना धरूँ प्रिय । मनवांछित वर चयन , मन विवश करूँ प्रिय । बन पर दास जीवन यापन करूँ प्रिय । प्रिय संग है अधर्म , निभाऊँ स्व पर धर्म प्रिय । जीर्ण-शीर्ण मन - हृदय मत करना प्रिय । प्रेम विष हृदय मस्तिष्क मत धरना प्रिय । श्री चरन कमल रज मस्तक रखना प्रिय । पुनर्जन्म लेकर निभाऊँ प्रेम धर्म प्रिय । (काव्य संग्रह - प्रेम अमर है ) ०९/०८/२०१९ 🌷👰💓💝 ...✍ कमल शर्मा'बेधड़क' 🌷... धर्म प्रिय 🌷 प्रेम करना सुहृदय का कर्म प्रिय । रेगिस्तान में सागर - सा भ्रम प्रिय । प्रेम जल बिन तरसता कमल प्रिय । प्रेम के
AK__Alfaaz..
अगहन का महिना, शुरू हो चला, आज, दिन के सारे काम निपटा के, त्रिपता, जा बैठी, दरीचे से झाँकती, गुलाबी सर्दी की, सुनहरी धूप मे, अपनी साँसों के, आसमानी ऊन के लच्छे लिए, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे.. #क्रोशिया अगहन का महिना, शुरू हो चला, आज, दिन के सारे काम निपटा के,
N S Yadav GoldMine
{Bolo Ji Radhey Radhey} अध्याय 2 : सांख्ययोग श्लोका 22 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। अर्थ :- मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है। जीवन में महत्व :- यह गीता में कई प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है, जिसमें यह समझाया गया है कि कैसे आत्मा अपने शरीर को छोड़ देती है और अन्य शरीरों के साथ पहचान करके नई परिस्थितियों में नए अनुभव प्राप्त करती है। व्यासजी द्वारा प्रयुक्त यह दृष्टान्त बहुत जानी मानी है । भगवान अपने विचारों को विशद उपमाओं के माध्यम से समझाने की विधि अपनाते हैं। इस तरह की तुलना आम आदमी को विचार स्पष्ट करने में मदद करती है। जैसे कोई जीवन की अलग अलग परिथितियों के लिए अलग अलग कपडे पहनता है, उसी प्रकार आत्मा एक शरीर को छोड़कर अन्य प्रकार के अनुभवों को प्राप्त करने के लिए दूसरे शरीर को धारण करती है। कोई भी नाइट गाउन पहनकर अपने काम पर नहीं जाता या ऑफिस के कपड़े पहनकर टेनिस नहीं खेलता। वे अवसर और स्थान के अनुकूल कपड़े पहनते हैं। यही हाल मौत या आत्मा का भी है। यह समझना इतना सरल है कि केवल अर्जुन ही नहीं, कोई भी विद्यार्थी या गीता का श्रोता त्याग के विषय को स्पष्ट रूप से समझ सकता है। अनुपयोगी कपड़े बदलना किसी के लिए भी मुश्किल या दर्दनाक नहीं होता है और खासकर जब किसी को पुराने कपड़े छोड़कर नए पहनने पड़ते हैं। इसी तरह, जब जीव को पता चलता है कि उनका वर्तमान शरीर उनके लिए किसी काम का नहीं है, तो वे पुराने शरीर को त्याग देते हैं। शरीर का यह "बूढ़ापन" या यों कहें कि शरीर की घटती उपयोगिता को केवल पहनने वाला ही निर्धारित कर सकता है। इस श्लोक की आलोचना यह है कि इस संसार में बहुत से बच्चे और युवा मरते हैं जिनका शरीर जीर्ण-शीर्ण नहीं था। इस मामले में, "बूढ़ापन" का अर्थ वास्तविक बुढ़ापा नहीं है, लेकिन शरीर की कम उपयोगिता यानी | इन बच्चों और युवाओं के लिए, यदि शरीर अनुपयोगी हो जाता है, तो वह शरीर पुराना माना जाएगा। एक अमीर व्यक्ति हर साल अपना भवन या वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे खरीदने के लिए कोई न कोई मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह भवन या वाहन पुराना या अनुपयोगी हो गया है, लेकिन ग्राहक की दृष्टि से वही मकान उतना ही उपयोगी है जितना नया। इसी तरह, शरीर अप्रचलित हो गया है या नहीं, यह केवल वही तय कर सकता है जो इसे धारण करता है। यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धांत को पुष्ट करता है। (राव साहब एन. एस. यादव ) अर्जुन इस दृष्टान्त के माध्यम से समझते हैं कि मृत्यु उन्हें ही डराती है जो इसे नहीं जानते। लेकिन जो व्यक्ति मृत्यु के रहस्य और अर्थ को समझता है, उसे कोई दर्द या दुख नहीं होता है, क्योंकि कपड़े बदलने से शरीर को कोई दर्द नहीं होता है, और न ही हम हमेशा वस्त्र त्यागने की स्थिति में रहते हैं। इसी प्रकार विकास की दृष्टि से आत्मा भी शरीर त्याग कर नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नये शरीर को धारण करती है। इसमें कोई दर्द नहीं है। यह वृद्धि और परिवर्तन जीव के लिए है न कि चेतना के रूप में आत्मा के लिए। आत्मा हमेशा परिपूर्ण होती है, उसे विकास की आवश्यकता नहीं होती। ©N S Yadav GoldMine #City {Bolo Ji Radhey Radhey} अध्याय 2 : सांख्ययोग श्लोका 22 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न
AK__Alfaaz..
भोर भये, उसके नैनों की सीपियों से, झरे मोती, बिछौने पर पड़ी, सिलवटों की लहरों मे खो गयें उम्मीद के, बंद झरोखों की, दराजों से, झाँकती पूनम की रात, छूकर उसके, लाल महावर लगे पाँव, उसकी फटी ऐंड़ियों की, दरारों मे, तलाशती है, उसके खोये सपनों की राह, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #थोड़ी_सी_धूप भोर भये, उसके नैनों की सीपियों से, झरे मोती, बिछौने पर पड़ी, सिलवटों की लहरों मे खो गयें