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wasim akram
SATRANJ MY.. WAZIRR.. Or.. ZINDAGI MY.. ZAMIRR .. AGAR Mrr JAYY TOO .. KHELL KHATAMM.. SAMAJIYA.. #। मानव होने के नाते
Vikash Kumar Kaimuri
किसी भी देश का अपना मातृ भाषा यानी क्षेत्रीय भाषा प्राण होता है। बीना किसी भाषा के कोई भी देश प्रगति नहीं कर सकता। हम सभी को चाहिए। की हम सभी मिलकर अपने मातृ भाषा का सम्मान करे। और इस भाषा को विलुप्त होने से बचाएं। by vikash kaimuri ©Vikash Kaimuri अपनी मातृ भाषा को विलुप्त होने से बचाया जाए।
Pratibha Chaudhry (PC)
सनातन में बहुत से उत्सव और त्योहार विलुप्ति के कगार पे आ चुके है जैसे दिवाली के पहले दिन धनतेरस के दिन कुकुर त्योहार खत्म हो चुके है दिवाली के दिन वेराल (बिल्ली) की पूजा भी खत्म हो चुकी है बस दिवाली के दूसरे दिन गौ वर्धन पूजा बचा है वन देवी पूजा भी वन के संग विलुप्त हो चुकी दुबारा से जीव जंतु पेड़ पहाड़ जल जंगल प्रकृति को बसाना होगा दुबारा पूजा के बहाने ही प्रकृति को बचाना होगा ©Pratibha Chaudhry (PC) विलुप्त होते त्यौहार
भाग्य श्री बैरागी
समाज ने उपजें हैं कई हजारों रोग, नारी अपमान करके भी बच जाते लोग। ना जांचा ना परखा कुछ भी,सोच ने नारी को बाँझ भी कह दिया, पुरुष के पुरुषत्व को ठेस न पहुँचे बस,हर दोष को औरत के सर मढ़ने का हक किसने दिया? समाज के लोग सोच जनित रोग के शिकार, अपनी इज़्ज़त भी नारी,वही बदनामी का आधार। बेटे बचा कर रख लिए,बहू ही पिसती रही, बाँझ कहलाने के बावजूद,पति की परेशानी छिपाती रही। 9 "सोच जनित रोग" #रमज़ान_कोराकाग़ज़ #मेरी_बै_रा_गी_कलम
SK Singhania
मानव जाति के होने के बावजूद भी , मानव मानव से पूछते हैं, आप कौन सी जाति के हो? मानव को मानव नहीं दिखता पेरियार✍ ©SK Singhania #BudhhaPurnima मानव जाति के होने के बावजूद भी मानव मानव से पूछते हैं, आप कौन सी जाति के हो? मानव को मानव नहीं दिखता #पेरिया
Pushpendra Pankaj
यह दृश्य कितना बदल गया, अवलोकन से मालूम हुआ है झूठ की अट्टालिकाओं के नीचे सच का झौपङा दबा हुआ है चाह थी मन मे ,सच को देखूँ, इसी लिए निगरानी पर हूँ । कैसे देखूँ?लालच की धुंध मे, तौर आँख का गिरा हुआ है । जाच भी हुई हैं ,कि कमी कहाँ है? रिपोर्ट भी देखी,समाधान भी, किन्तु सब बेकार हो गए, ईमान संकेतक डिगा हुआ है ।। पुष्पेन्द्र पंकज ©Pushpendra Pankaj #dhundh विलुप्त होता सच
Pradyumn awsthi
इंसान का स्वाभाव और मन समय के साथ इतना ज्यादा बदलते जा रहें हैं की जिसकी कोई सीमा ही नहीं है और अब प्रेम तो केवल बेचारे जानवरों तक ही सीमित हो गया है क्योंकि इंसान ने तो कुछ ज्यादा ही विकास कर लिया है इसलिए अब इंसान के अंदर से प्रेम नाम का भाव धीरे धीरे विलुप्त होता जा रहा है ©"pradyuman awasthi" #विलुप्त होता जा रहा हैं
Rudeb Gayen
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है? भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में? कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है? आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए, लाख लानत जिनका, फटता नहीं मरम है। -रामधारी सिंह दिनकर ©Rudeb Gayen एक विलुप्त कविता #ramdharisinghdinkar #रामधारी_सिंह_दिनकर