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raghu rahgir
किसको सहेजें हम किसको बिखेरें! कुछ आए थे खुशीयां जो गम से मिलाए, कुछ आए जो गम वो खुदा से मिलाए। ये किसकी नजर थी ये किसका दुआ था! कुछ भरे ज़ख्म पूरे, कुछ मरहम मिलाए। ये कैसी जिंदगी है, ये कैसी रवानी! कुछ हुए ख्वाब पूरे ,कुछ हमदम मिलाए। ये क्या गुफ्तगू थी,ये कैसी कहानी! कुछ हुआ रूबरू उनसे कुछ खुद से मिलाए। ©raghu rahgir किसको सहेजें हम किसको बिखेरें! #ujala
Amit Singhal "Aseemit"
लिफ़ाफ़ा याद का खोलें, तो वे खुद से मुस्कुराते हैं, हक़ीक़त में मिलें नज़रें, तो वे नज़रें चुराते हैं। ©Amit Singhal "Aseemit" #लिफ़ाफ़ा #याद #का #खोलें
अर्पिता
जब भी किसी से मिलो.... तो खुश होकर मिलों, समय तो उतना ही जा रहा हैं, जितनी देर मिल रहे हों, तो फिर अपनी छवि ही सुन्दर बनाओ।। ©अर्पिता #छवि
Pragya Amrit
कवियित्री की कल्पना सी सूरत तेरी, आंखो से रूह में उतरती मूरत तेरी। नयनों से नूर बिखेर जो प्राणों में समाते, होंठो से मुस्कान बिखरे तो कयामत ढाते। ©Pragya Amrit छवि
Ripudaman Jha Pinaki
किसी की नजर में बुरे हम बने हैं। किसी की नजर में भले हम बने हैं। मगर लोग ऐसे भी हमको मिले कुछ- कि जिनके लिए हम भले ना बुरे हैं। जो जैसे थे वैसा ही हमको बताया। हमारी छवि को जगत को दिखाया। किया हमने स्वीकार हर भावना को- हमारे लिए जिसने जैसा बनाया। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©Ripudaman Jha Pinaki #छवि
Parasram Arora
माना क़ि धूमिल है तुम्हारा दर्पण और तुम्हरी साफ सुथरी छवि और ऊर्जावांन प्रतीमा का ये बिम्ब तुम्हारा गलत प्रचार करने मे सक्षम है लेकिन अगर तुम्हे अपने आचरण पर संदेह नहीं है और ये दर्पण अगर तुम्हारा परिहास नहीं कर पा रहा है तो उस दर्पंण . की धूमिलता से तुम्हे विचलित होने की जरूरत नहीं है क्योंकि तुम्हारी तथाकथित स्वच्छ छवि चिरस्थाई रहने वाली है #स्वच्छ छवि.......
Prakash Shukla
हो कौन जिसको देखते ही, सिहर जाता तन बदन। आप भूधरा का अंश हो,या हो विचारों की पवन।। आपको पहचानने को मेरा,हो रहा विक्षिप्त मन। आभा अलौकिक देखनें को,झुलसते मेरे नयन।। मैं काल हूँ हाँ काल हूँ,हाँ मैं ही महाकाल हूँ,। मैं शान्त हूँ मैं ज्वाल हूँ,मैं प्राणहारक काल हूँ। मै दिक् दिगन्त में लीन हूँ,रूप में विकराल हूँ। मैं काल हूँ हाँ काल हूँ,हाँ मैं ही महाकाल हूँ,। नदियों की बहती धार हूँ,सारे विश्व की हुँकार हूँ ममता में छलकता प्यार हूँ,ज्वालामुखी उद्गार हूँ। मुझसे सृजन है सृस्टि का,मुझमें ही होता है पतन कण कण में मैं ही व्याप्त हूँ,प्रकाश का मैं जाल हूँ। मैं काल हूँ हाँ काल हूँ,हाँ मैं ही महाकाल हूँ,। ब्रह्मांड का मै आदि हूँ,मैं अन्त हूँ मैं अनादि हूँ मैं भूत हूँ मैं आज हूँ,मैं ही भविष्य का राज हूँ। मै विकटसम मैं विराट हूँ,मैं ही समस्या काट हूँ मैं गगन हूँ मैं चन्द्र भी ,मैं ही प्रभाकर लाल हूँ। मैं काल हूँ हाँ काल हूँ,हाँ हाँ मैं ही महाकाल हूँ,।। अलौकिक छवि