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Jitendra Kumar Som
भगवान विष्णु का स्वप्न एक बार भगवान नारायण वैकुण्ठलोक में सोये हुए थे। उन्होंने स्वप्न में देखा कि करोड़ों चन्द्रमाओं की कांतिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण-भूषित, सुरेन्द्र-वन्दित, सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनन्दातिरेक से उन्मत्त होकर उनके सामने नृत्य कर रहे हैं। उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष से गद्गद् हो उठे और अचानक उठकर बैठ गये, कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे। उन्हें इस प्रकार बैठे देखकर श्रीलक्ष्मी जी पूछने लगीं, ``भगवन! आपके इस प्रकार अचानक निद्रा से उठकर बैठने का क्या कारण है?'' भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रशन का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे, कुछ देर बाद हर्षित होते हुए बोले, ``देवि, मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्रीमहेश्वर का दर्शन किया है। उनकी छवि ऐसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी। मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है। अहोभाग्य, चलो, कैलाश में चलकर हम लोग महादेव के दर्शन करें।'' ऐसा विचार कर दोनों कैलाश की ओर चल दिये। भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश मार्ग पर आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का तो ठिकाना ही नहीं रहा। मानों घर बैठे निधि मिल गयी। पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। ऐसा लगा, मानों प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक-दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनन्दाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक-दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रशनोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकर जी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानों विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में अब उनके सामने खड़े थे। दोनों के स्वप्न के वृत्तान्त से अवगत होने के बाद दोनों एक-दूसरे को अपने निवास ले जाने का आग्रह करने लगे। नारायण ने कहा कि वैकुण्ठ चलो और भोलेनाथ कहने लगे कि कैलाश की ओर प्रस्थान किया जाये। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय? इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे, उस अलौकिक-मिलन को देखकर। वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें, वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों की ओर मुख करते हुए बोलीं, ``हे नाथ, हे नारायण, आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलाश है, वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है, वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है। यहीं नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो हैं। और तो और, मुझे तो स्पष्ट लग रहा है कि आपकी भार्याएँ भी एक ही हैं। जो मैं हूं, वही लक्ष्मी हैं और जो लक्ष्मी हैं, वही मैं हूँ। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गयी है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानों दूसरे के प्रति ही करता है। एक की जो पूजा करता है, वह मानों दूसरे की भी पूजा करता है। मैं तो तय समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हूं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे असमंजस में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिव रूप में वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णु रूप में कैलाश-गमन कर रहे हैं। इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए, दोनों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया और अत्यंत हर्षित होकर अपने-अपने लोक को प्रस्थान किया। लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी ने उनसे प्रशन किया, ``हे प्रभु, आपको सबसे अधिक प्रिय कौन है?'' भगवन बोले, ``प्रिये, मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और श्रीशंकर दोनों पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशान्तर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गयी। वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की चर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।'' इस तरह जो शिव की पूजा करता है वह वैकुंठवासी विष्णु को भी स्वीकार है और जो श्री विष्णु की वंदना करता है, वह त्रिपुरारी को भी मना लेता है। ©Jitendra Kumar Som #Health भगवान विष्णु का स्वप्न
#Health भगवान विष्णु का स्वप्न #पौराणिककथा
read moreParasram Arora
जिस दुनिया को रचा था मैने अपनेख़ून पसीने का अर्घ्य देकर अफ़सोस उसे मै अपने सँग लेकर नहीं जा सकता मृत्यु लोक क़े सुपर बाजार तक मृत्यु लोक का सुपर बाजार.
मृत्यु लोक का सुपर बाजार.
read morevishnu meadical
dil tutata hai to aawaj aati hai ©vishnu meadical आप का अपना विष्णु मद्धेशिया #MereKhayaal
आप का अपना विष्णु मद्धेशिया #MereKhayaal
read moreEk villain
Delhi Pollution राजनारायण को दुनिया से विदा हुए बुधवार को पूरे 35 वर्ष बीत गए किंतु उनकी कहानियों के सारांश कभी नहीं आया सही अर्थ में वह राजनीति के पर्याप्त थे उनके चरित्र की अगर कल्पना की जाए तो जमीदार धरने में जमीन जन्म लेने से बावजूद में करीब 10 के करीब खड़े नहीं आएंगे समिति आंकड़े से काफी दूर और स्वभाव से 100% पकड़ सबके लिए सारे समाज सहज सरल उपलब्ध कराने वाले समाजवादी नेता का पूरा जीवन संघर्ष में ही बीता राजनारायण देश में शायद पहले ही ऐसे नेता रहे होंगे जिसने पराधीन भारत से सबसे ज्यादा स्वाधीनता भारत में जिलों की यात्रा 70 वर्ष की जिंदगी में 80 बार जेल गए आजादी से पहले 3 वर्ष जेल में बिताए और आजादी के बाद 14 वर्ष बनारस में संपन्न परिवार में पैदा होकर भी सुकून का नहीं संघर्ष का साथ दिया कहीं भी किसी के साथ अन्य होते देखे तो मंत्री रहते हुए भी आंदोलन में शामिल होने से परहेज नहीं किया पुलिस की गोली से मारे गए एक व्यक्ति के समर्थन में मंत्री रहते हुए भी उन्होंने प्रदर्शन किया राज्य नारायण ने लोकतंत्र की मजबूती के लिए जीवन को समर्पित कर दिया अपना सब कुछ निछावर कर दिया राजनारायण की जीवन के प्रत्येक पन्ने में गंभीर विमर्श के मुद्दे हैं जो लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित पर तथा कर सकते हैं उन्होंने जागृति कर सकते हैं देश की ताकतवर नेता एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व को चुनौती देने के लिए पहले कोर्ट में फिर वोट की चोट से उन्होंने व्रत करने से भी आगे अपनी हुई सरकार को खिलाफ खड़ा ही वो जाने किस हाल में सिर्फ राज नारायण के चरित्र मैं ही मिल सकता है ©Ek villain # लोक कल्याण का माध्यम बने राजनीति
# लोक कल्याण का माध्यम बने राजनीति
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