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ranjit Kumar rathour
ये एक इत्तेफाक था कि मैं अपने गांव में था भागवत कथा चल रहा था स्वभाव के विपरीत मैं वहा था आदतन सुनता नही मैं लेकिन गांव है मेरा प्रवाचक ने शुरू किया भाई से भाई के बटवारा हो लेकिन संपत्ति का नही सवाल था आखिर किसका? जवाब प्रवाचक का आया बिपत्ति का बटवारा हो पता नही क्यो लगा कि मैं गलत नही हूँ जब कि मैं उस वक्त तनाव में था फिर मैं बीच मे ही चला गया मजबूत और मजबूत होकर पास ही अपने स्कूल मैदान जहा से मैने ककहरा सीखा था नमन किया उस मंदिर को यही से हर संस्कार सीखे थे मैं भाई से मिलने आया था उसकी तबियत ठीक नही थी शायद किसी के लिए ये गलत था मैं असमंजस में था लेकिन संतुष्ट हो गया आज मेरा कथा पंडाल आना सार्थक हो गया लगा आना चाहिए कभी कभी ऐसी जगह शान्ति औऱ हल दोनों मिल जाते है ©ranjit Kumar rathour विपत्ति का बटवारा #संपत्ति का नही
HP
अहंकार और स्वार्थ के वशीभूत होकर आपस में लड़ने झगड़ने लगे और उनकी प्रतिभा उन्हीं के लिए विपत्ति बन गई। अखंड ज्योति विपत्ति
HP
धन की तरह ही ख्याति और मान प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षा भी संसार में भारी विपत्ति उत्पन्न करने वाली सिद्ध होती है। अखंड ज्योति विपत्ति
Ankit Tripathi
आज हम ज्ञान विज्ञान की दुनिया में तेज गति से आगे बढ़ रहे है।प्रतिदिन नए खोज नए अविष्कार से हम मानव सभ्यता को विकसित कर रहे हैं ।विज्ञान के इस प्रगति के साथ ही मानव सभ्यता के सामने रोज नए खतरे सामने आ रहे है।ये खतरे कभी प्राकृतिक आपदा के रूप में तो कभी खतरनाक बीमारियों के रूप में हमारे सामने आ रही हैं। मानव विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर है लेकिन क्या उसका विकास प्रकृति के साथ सामंजस्य बना पा रहा है?मानव ने विकास के माध्यम से सभ्य होने का दावा किया है लेकिन क्या वास्तव में मनुष्य सभ्य हुआ है? आदि मानव की सभ्यता से लेकर वर्तमान मानव सभ्यता के विकास का माध्यम कितना व्यापक है, कितना अर्थपूर्ण है,कितना विनाशकारी , कितना अपरिपक्व है और कितना स्वार्थपरक है उसे समझना बहुत जरूरी है। आग का प्रयोग सीखना ,गोल चक्र का इस्तेमाल करना, जानवरों का प्रयोग अपने लाभ में करने की कला सीखना, अपने तन को ढकने की परंपरा सीखना, परिवार का निर्माण करना या यह कहें की प्रकृति का इस्तेमाल करके मानव ने धीरे-धीरे अपने सभ्यता का विकास करना सीखा है।मानव जाति को प्रकृति ने बुद्धि विवेक में निपुण बनाकर पृथ्वी पर एक अद्भुत रचना किया ।उसे यह बुद्धि विवेक अपनी धरती को सजाने संवारने और अन्य जीव-जंतुओं का ख्याल रखने को दिया गया । पर मानव ने क्या किया ?उसने धरती को कितना सजाया , संवारा और अन्य जीव-जंतुओं का कितना ख्याल रखा है इसका जीवंत प्रमाण आज हमारे सामने है । जब हम आदिमानव थे तो जंगल हमारा घर था और आज जब हम कथित सभ्य मानव है तब जंगल हमारे दोहन का सबसे बड़ा साधन है। हमने प्रकृति की गोद में खेल कर अपना स्वार्थी विकास किया। जिस प्रकृति ने मानव को पाला पोसा और उसे विकास का अवसर प्रदान किया उसी प्रकृति को मानव ने लूटा खसोटा और बर्बाद करने में कोई कसर नही छोड़ा। हम समय बीतने के साथ जंगल के जीवन से बाहर आ गए और सभ्य होने के रास्ते की तरफ बढते चले गए। लेकिन प्रश्न उठ जाता है कि क्या हम वास्तव में सभ्य हो गए और क्या सच में हम जंगली नहीं रह गए? कह पाना तो मुश्किल है, क्योंकि जैसे-जैसे हम प्रकृति की गोद से बाहर निकल कर अपना पैर आगे बढ़ाना शुरू किए वैसे-वैसे खुद के लाभ के लिए खुद को सभ्य कहते चले गए। सभ्य होने का ढोंग करने के साथ-साथ हमने अपने पालनहार प्रकृति को और उस प्रकृति की व्यापकता को भूलते चले गए। मानव सभ्यता की यह विकास यात्रा धीरे-धीरे अंधी और स्वार्थी होती चली गई। हम इतने अंधे हो गए कि हम भूल गए कि हमारा अस्तित्व इस प्रकृति ने ही बनाया है।मानव तो इतना अंधा हो गया है कि जिस हवा में वो जिंदा हैं उसी को प्रदुषित करते चला गया,जिस जल से प्यास मिटनी है उसी को गंदा करते चला गया ,जिस जंगल ने हमारे पूर्वजों को पाला है हम उसी को काटते चले गए, जिस मिट्टी ने हमें जन्म दिया है उसी को बर्बाद करते चले गए ।इन सबके बाद भी बड़े गर्व से कहते चले गए कि हम सभ्य होते जा रहे हैं।सच में तो हमने विकास के बजाय केवल विनाश किया है।जिस विकास के लिए हम पागल हो गए हैं वो विकास मानव के अस्तित्व के लिए खतरनाक होता चला जा रहा है।हमारा सभ्य होने का ढोंग मानव जाति के लिए केवल खतरा उत्पन्न कर रहा है।खतरा कितना बढ़ता जा रहा ये कहने की जरूरत नही है ।प्रकृति के हर क्षेत्र से हमारे अस्तित्व को चुनौती मिल रही है ।दिन प्रतिदिन बढ़ती बीमारियां ,बढता वायु प्रदुषण,बढ़ता जल प्रदुषण ,घटता वन क्षेत्र ,बढ़ता कंक्रीट फॉरेस्ट और बढ़ती जनसंख्या और न जाने कितने अनजान खतरे रोज के रोज इस धरती पर हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।आँखे मूंद लेने और विकास के ढोंगी और खतरनाक डफली बजाने से ये खतरा केवल बढ़ता जाएगा। अभी भी समय है कि हम प्रकृति के साथ दुबारा सामंजस्य बिठाये । अपने विकास यात्रा में प्रकृति को प्रथम स्थान दें।प्रकृति से दूरी बनाने के बजाय उसका आत्मसात करें ।ये समझना होगा कि यदि प्रकृति हमें पाल सकती है तो हमारा संघार भी कर सकती है ।अब हमें तय करना है कि हम क्या चाहते हैं।अंततः यही कहूंगा कि हमारा अस्तित्व हमारे व्यवहार पर निर्भर करता। लेखक :अंकित त्रिपाठी ईमेल :ankittripathi151@gmail.com ©Ankit Tripathi सभ्यता का विकास "वरदान या विपत्ति" #WallPot
Rakhi Yadav
जीवन में विपत्तियों का आना स्वाभाविक हैंI वह कभी भी, किसी भी समय,किसी भी रूप में आती हैं और भविष्य में भी आएंगी I अब यह व्यक्ति पर निर्भर करता हैI कि व्यक्ति कितना तैयार,मजबूत रहता हैंI विपत्तियों से लड़ने के लिए I ©Rakhi yadav विपत्ति #bhagatsingh
Rahul Shastri worldcitizens2121
Safar July 10,2019 सत्संग का अर्थ होता है गुरु की मौजूदगी! गुरु कुछ करता नहीं हैं, मौजूदगी ही पर्याप्त है। ओशो सत्संग का अर्थ
ARVIND KUMAR
विचार --------------------- जिन्दगी का हर एक छोटा हिस्सा ही, हमारी जिदंगी की सफलता का बड़ा हिस्सा होता है ! ©Arvind Kumar सफलता का अर्थ!