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शून्य(ब्राह्मण)
Sangeeta Patidar
'ॐ साईं राम' तू टूटता है, तो मैं भी टूट जाता हूँ, तुझमें रहता हूँ, असर तो होगा ही। सबका दर्द हरूँ, वक़्त भी लगता है, निरंतर चलता हूँ, पहर तो होगा ही। तेरे साथ था, हूँ और रहूँगा हमेशा ही, वादा किया और निभाऊँगा हमेशा ही, तू थकता है, तो मैं भी थक जाता हूँ, तुझमें रहता हूँ, असर तो होगा ही। सबका मान रखूँ, वक़्त भी लगता है, सुनता रहता हूँ, देर-सवेर तो होगा ही। विश्वास रख, दुख-दर्द के बादल छटेंगे, उम्मीद रख, ये मुश्किलों के पल कटेंगे, तू रुकता है, तो मैं भी रुक जाता हूँ, तुझमें रहता हूँ, असर तो होगा ही। सबका ध्यान रखूँ, वक़्त भी लगता है, बाँटता रहता हूँ, तितर-बितर तो होगा ही।। रमज़ान 27वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
मेरा चेहरा... तुम्हें किताब का लुत्फ़ देता है क्या? अक़्सर खोल कर पढ़ने बैठ जाया करते हो तुम। मत किया करो ऐसा मैं सच मान बैठती हूँ हमेशा, बातों को वादा समझ ख़्वाब बुन बैठती हूँ हमेशा, मेरा इंतज़ार... तुम्हें स्वाद का लुत्फ़ देता है क्या? अक़्सर घोल कर बढ़ाने बैठ जाया करते हो तुम। फ़ैसले भी तेरे, फ़ासले भी तेरे तो मेरा क्या कसूर, रूठे भी तू, टूटे भी तू साथ मेरे तो मेरा क्या कसूर, मेरा मनाना... तुम्हें तुलना का लुत्फ़ देता है क्या? अक़्सर तोल कर, लड़ने बैठ जाया करते हो तुम। मेरा चेहरा... तुम्हें किताब का लुत्फ़ देता है क्या? अक्सर खोल कर पढ़ने बैठ जाया करते हो तुम। रमज़ान 24वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
समझो लिख रही हूँ तुम्हारे दिल की बात, तुम्हारे उनके लिये, क्योंकि जानती हूँ उनके ख़याल में खो लिखना भूल जाते हो। इश्क़ तो इश्क़ है, इसका एहसास, ख़याल, दर्द होता एक-सा, क्योंकि मिलने के बाद अक़्सर, तुम भी बोलना भूल जाते हो। अनकही बातों का ढेर ये-वो वो-ये सोचे बहुत सुनाने के लिये, क्योंकि मिल उनसे, खो उन्हीं में, लफ़्ज़ चुनना भूल जाते हो। ख़ुद से करते हो जो तुम वक़्त-बेवक़्त उनकी शिकायतें इतनी, क्योंकि उनकी फ़ुर्सत में देख ख़ुद को वो रूठना भूल जाते हो। अरे! फ़िक्र न करो तुम हमारी, कौन-सा ज़िक्र-ठप्पा है लगाया, क्योंकि जानती 'धुन', उनके ख़याल में तुम अपना भूल जाते हो। रमज़ान 17वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
देने को बहुत कुछ है, पर मैं अपना सा कुछ देना चाहती हूँ, तेरे दिल को दे जाये सुकूँ, मैं बस ऐसा कुछ देना चाहती हूँ। हाँ-हाँ हो गई उधारी भी बहुत, इश्क़ का हिसाब अभी बाकी, तेरे लबों पर ले आये हँसी, मैं बस ऐसा कुछ देना चाहती हूँ। बातें भी बहुत हैं, यादें भी बहुत हैं, वक़्त बस ठहरता नहीं है, तेरे तन्हा लम्हे पाये बहार, मैं बस ऐसा कुछ देना चाहती हूँ। इंतज़ार के साथ रहेंगे गिले-शिकवे भी अक़्सर दरम्याँ हमारे, तेरे रूठे दिल को ले मना, मैं बस ऐसा कुछ देना चाहती हूँ। कोई नायाब तोहफ़ा देगा 'धुन', कोई छोड़ेगा ना कमी देने में, तेरे हाथों से छूटे न छूटे जो, मैं बस ऐसा कुछ देना चाहती हूँ। रमज़ान 15वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
ज़िन्दगी में किसी का होना, इतना ही ज़रूरी है क्या? लिखूँ ज़ज्बात अपने, ढूँढ़ता ज़माना किसी और को।। मेरा नहीं कोई एक 'ख़ास' ग़र तो दिल धड़केगा नहीं? मैं लिखती हूँ अपना, पढ़ता ज़माना किसी और को।। अरे भई! इश्क़ का मतलब 'एक' हो, ज़रूरी तो नहीं, कहती हूँ मैं अपना, सुनता ज़माना किसी और को।। एहसातात बाँधा नहीं करते, उन्हें तो महसूस करते हैं, मैं जताती अपना, समझता ज़माना किसी और को।। क्या होगी ज़िंदगी ग़र बैठ गये एक-एक को समझाने, करती अपने मन की, देखता ज़माना किसी और को।। रमज़ान 11वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
नुमाइश से अक़्सर इश्क़ को नज़र लगती है, होता है बुरा, जो ज़माने को ख़बर लगती है।। ख़ुशी से ज़्यादा दर्द आकर ठहरता है दिल में, हर बात भी फ़िर एक ज़ख़्मी शहर लगती है।। छोटी-छोटी बातों से जो बड़ा सुकून मिलता है, न मिले ग़र रोज़, फ़िर इश्क़ में कसर लगती है।। फ़िक्र-ज़िक्र रहते वही, बदलते तो ये हालात हैं, शक़ और हक़ की रीत भी फ़िर ज़बर लगती है।। नुमाइश से अक़्सर इश्क़ को नज़र लगती है, होता है बुरा, जो ज़माने को ख़बर लगती है।। रमज़ान सातवाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
करेले को डुबा चाशनी में, परोस रहे हैं लोग आजकल, उन्हें मालूम नहीं, करेला तो बड़े शौक़ से खाते हैं हम।। बेईमानी पे ईमानदारी का वर्क चढ़ा ख़ुश तो बहुत होंगे, उन्हें मालूम नहीं, बीमारी से डर सब-कुछ धोते हैं हम।। ख़ुद का घर चलाने के लिये औरों को झोंकना चाहते हैं, उन्हें मालूम नहीं, उसूलों से ही तो बिंदास जीते हैं हम।। -संगीता पाटीदार रमज़ान चौथा दिन... #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
हैरत होती है कि कैसे उम्दा हूँ मैं, तुझसे दूर होकर कैसे ज़िंदा हूँ मैं, यादों में तुझसे रूबरू होके जाना, मुझमें तू है बसी तभी परिंदा हूँ मैं। बेज़ार बस्तियों में लोग नहीं मिलते, तन्हा आलम में अपने नहीं दिखते, जाने कैसे ये ज़ख़्म होश नहीं खोते, हैरत होती कैसे इसकी बाशिन्दा हूँ मैं, तुझसे दूर होकर कैसे ज़िंदा हूँ मैं! यादों को धुन-धुन, निखार लिया है, लम्हों को बुन-बुन, सँवार लिया है, बातों को चुन-चुन, पखार लिया है, हैरत होती है फिर कैसे शर्मिंदा हूँ मैं, तुझसे दूर होकर कैसे ज़िंदा हूँ मैं! हैरत होती है कि कैसे उम्दा हूँ मैं, तुझसे दूर होकर कैसे ज़िंदा हूँ...! रमज़ान 29वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़
Sangeeta Patidar
लिख रही हूँ मैं आजकल ऐसे, हर तहरीर आख़िरी हो जैसे। कर रही हूँ जज़्बात भी बयाँ ऐसे, हर बात आख़िरी हो जैसे। इतना समझाने के बाद भी दिल होता जा रहा ख़ुदगर्ज़ बड़ा, धड़कन कर रही भाग-दौड़ ऐसे, हर साँस आख़िरी हो जैसे। मुस्कुराते चेहरों में देख रही हूँ मैं अपनी ख़ुशियों का आईना, छुपा के ग़म, बाँट रही ख़ुशी ऐसे, हर पल आख़िरी हो जैसे। छोटी सी ज़िन्दगी में, क्या-क्या समेट साथ ले जायेगा कोई, क़तरा-क़तरा संभाल रही हूँ ऐसे, हर बार आख़िरी हो जैसे। सिक्कों की खनक से ज़्यादा, है सबकी ख़ुशी में राहत 'धुन', सँवार देना उन्हें इन्द्रधनुषी रंगों से, हर रंग आख़िरी हो जैसे। रमज़ान 25वाँ दिन #रमज़ान_कोराकाग़ज़