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Devendra Machra

नीब कि निबोड़ी #SUPERDAD

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Raj Aviraj

नीब= कलम की नोंक

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खुद में इक समंदर छुपाए
हर आंख खुद में पानी रखता है
कलम की नीब जरा सी मंद पड़ी है
हर कलम खुद में इक कहानी रखता है
 #NojotoQuote नीब= कलम की नोंक

sachin ryt here

दिल का साफ होना हर रिश्ते की नीब के लिए जरूरी हैखूबसूरत दिल #Quote

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खूबसूरत दिल "जो चहरे को साफ और दिल को मेला रखते है"
{अगर आप के पास बाहरी खूबसूरती है और दिल साफ नही तो आप भद्दे ही हो} दिल का साफ होना हर रिश्ते की नीब के लिए जरूरी है#खूबसूरत दिल

GoluBabu

🌴 सुर, नर, मुनि जन तैतींस करोड़ी बंधे सभी निरंजन डोरी 🌴 #Sanatani #SaintRampalJi #Vedanta #ViralVideo आध्यात्मिक जानकारी के लिए PlaySto #न्यूज़

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Nasin Nishant

#हालत-ए-शायरी बात वो नहीं कि मेरी शायरी अब चिड़मिड़ा रही है सच तो ये है कि अब ये घबरा रही है शायरी तक गर सब खत्म हो जाता तो ठीक था पर जबसे आ #MySituationIsSameAsMyShayari

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"हालत-ए-शायरी"
बात वो नहीं कि मेरी शायरी अब चिड़मिड़ा रही है
सच तो ये है कि अब ये घबरा रही है
शायरी तक गर सब खत्म हो जाता तो ठीक था
पर जबसे आँखों ने ली है लब्ज़ों की जगह तबसे कलम की नीब थर्र-थर्रा रही है । #हालत-ए-शायरी
बात वो नहीं कि मेरी शायरी अब चिड़मिड़ा रही है
सच तो ये है कि अब ये घबरा रही है
शायरी तक गर सब खत्म हो जाता तो ठीक था
पर जबसे आ

रजनीश "स्वच्छंद"

कागज़ी दुनिया।। कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ, बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ। कभी बारिश कभी ये धूप, कभी #Poetry #kavita #tourdelhi

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कागज़ी दुनिया।।

कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ,
बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ।

कभी बारिश कभी ये धूप,
कभी जलता कभी गलता।
समय के जो थपेड़े थे,
लगा दीमक कभी झरता।

कलम की नीब से डरकर,
जो कोरा आज दिखता हूँ।
न कोई राह न मंज़िल,
कोरा ही आज बिकता हूँ।

डरा मैं आग पानी से,
रहा बन्द भी तिजोरी में।
बदलते हाथ थे रहते,
रहा बंटता बटोही में।

कलम से थी मेरी यारी,
स्याही छींट कर रोया।
जो मुझपे नीब टूटी थी,
वो माथा पीट कर रोया।

कभी माशूक और आशिक़,
मैं सीने से लगा रहता।
कभी बोतल का लेबल में,
वो पीने में लगा रहता।

कोई मंत्री कोई नेता,
मुझे है देखकर पढ़ता।
लक्ष्मी की रही दुनिया,
वो पैसे फेंककर बढ़ता।

वो रस्ते का भिखारी भी,
मुझे थाली समझ जाता।
लिखीं थीं हक की बातें,
मुझे गाली समझ जाता।

कहाँ मैँ सत्य भी लिखता,
कलम दरबारी बन बैठी।
पुलिंदा झूठ का था मैं,
मुहर सरकारी बन बैठी।

बच्चे खेलते मुझसे,
कभी कश्ती कभी था प्लेन।
उड़ जाउँ आसमां में मैं,
बनाता एक नया सा गेम।

वेदों की कथा मुझमे,
गीता और पुराण मुझमे।
मज़हब एक था मेरा,
गुरवाणी और कुरान मुझमे।

पढ़ा किसने मुझे कब था,
दिखावे की रही दुनिया।
पड़ा निःशब्द बैठा हूँ,
छलावे की रही दुनिया।

कोई हंसता मुझे पढ़ कर,
कोई रोता मुझे पढ़कर।
किसी का हक कोई लूटे,
सीने पर मेरे चढ़कर।

कथा इतनी वृहद है कि,
सुनाता मैं चला जाऊं।
पली है स्वार्थ में दुनिया,
भुलाता मैं चला जाऊं।

कभी आऊंगा मैं कह दूं,
किस्सा एक नया लेकर।
दीमक झाड़कर अपने,
हिस्सा एक नया लेकर।

बचाने आग से तुमको, नहीं कागज़, मैं चिमटा हूँ।
कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" कागज़ी दुनिया।।

कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ,
बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ।

कभी बारिश कभी ये धूप,
कभी

रजनीश "स्वच्छंद"

कैसी कविता।। ना कवि हूँ, ना कविता लिखता, शब्द-भाव पिरोया करता हूँ। ये देख देख दुनिया अपनी, निजमन ही रोया करता हूँ। भावों की विह्वल धारा, #Life #Truth #सच #kavita #nojotophoto

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 कैसी कविता।।

ना कवि हूँ, ना कविता लिखता,
शब्द-भाव पिरोया करता हूँ।
ये देख देख दुनिया अपनी,
निजमन ही रोया करता हूँ।

भावों की विह्वल धारा,

रजनीश "स्वच्छंद"

हाय रे इंसान।। इंसां धूल है फांक रहा, दानव मुख से झांक रहा। लिए हाथ धागा सुई, अपनी करनी है टांक रहा। क्या इसे दिखा क्या नहीं दिखा, #Poetry #kavita #tourgurugram

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हाय रे इंसान।।

इंसां धूल है फांक रहा,
दानव मुख से झांक रहा।
लिए हाथ धागा सुई,
अपनी करनी है टांक रहा।

क्या इसे दिखा क्या नहीं दिखा,
खुले आँख ये अंधा है।
देवत्व चाह पनपा दिल मे,
पर, कर्म ही इसका गन्दा है।

एक कथा उसकी भी सुन लो,
जो प्राणी मात्र में श्रेष्ठ रहा।
भरा कमंडल गंगाजल से,
पापों से भरता पेट रहा।

सब कहता सब सुनता है,
व्याधी एक ही लगी रही।
बना खिलौना यंत्र बना है,
चाबी एक ही लगी रही।

ज्ञान विवेक काले आखर हैं,
लक्ष्मी लेती अंगड़ाई है।
बड़ा है सबसे धूर्त कौन,
बस इसकी ही लड़ाई है।

आलू टमाटर कल तुलते थे,
भाव की बोली लगती है।
कभी होलिका जली अनल में,
प्रह्लाद की होली जलती है।

वरदान हुआ है वर से बड़ा,
बस इक्षाशक्ति है शेष नहीं।
सत्य पड़ा चीथड़ों में लिपटा,
वसन है तन पर शेष नहीं।

विधि कहाँ कानून कहाँ,
बस नीब ही तोड़े जाते हैं।
सांच जली है अपनी आंच,
कर निर्जीव ही छोड़े जाते हैं।

जो कलम कभी तलवार रही,
अब दरबारों में सजती है।
ये पांव की पायल बन बैठी,
तबले के ताल पे बजती है।

हुंकार का स्वर निस्तेज रहा,
अब गला भी रुंधा जाता है।
बना के बन्दर बापू का,
मुंह आंख कान मूंदा जाता है।

वो बीज अंकुरित हो भी कैसे,
जो घुना हुआ और खँखर है।
मिट्टी में सोंधी महक कहाँ,
ये तो बस पत्थर कंकर है।

आंख भरे जो कथा कहुँ,
पर सच तो मुख से फूटेगा।
एक दिन सूरज निकलेगा,
और अहं बांध भी टूटेगा।

©रजनीश "स्वछंद" हाय रे इंसान।।

इंसां धूल है फांक रहा,
दानव मुख से झांक रहा।
लिए हाथ धागा सुई,
अपनी करनी है टांक रहा।

क्या इसे दिखा क्या नहीं दिखा,
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