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Vivek Kumar Singh
मैं विहान और विवान ©Vivek Kumar Singh मैं विहान और विवान
Sanjeev Jha
'2' सड़कों पे जो लिखे थे नववर्ष के संदेशे उसको कुचल रहे थे उसके भी जोड़े जूते कैसे कहूं कि सबका दिल बहल गया सदी का पहला विहान ढल गया गीतों के धुन पर ठुमके लगते रहे निराले हर मौज छू के जैसे पुलकित हुए किनारे अपनी गली में जैसे फिल्मिस्तान उतर गया सदी का पहला विहान ढल गया क्रमशः... ©संजीव #सदी #पहला #विहान #LostInCrowd
Sanjeev Jha
'3' तरह तरह के व्यंजन थालों में सजा भोजन फेंकी हुई पॉलीथिन में वो खोज रहे थे जूठन किसी की पार्टी हुई उसकी मुस्कान छल गया सदी का पहला विहान ढल गया किसी ने कह दिया था जनवरी झोली भरेगी बूढ़ी काकी मान ली थी अब मेरी खोली भरेगी अगली सुबह झोपड़तोड़ का एलान कर गया सदी का पहला विहान ढल गया (इतना ही) ©संजीव #सदी #पहला #विहान #LostInCrowd
Sanjeev Jha
'1' कहीं शोर और शराबे कहीं धूम और धड़ाके लगे मैदान में मेले दिखे सड़कों पर सन्नाटे पहली जो ढली शाम ये तमाशा बदल गया सदी का पहला विहान ढल गया वनभोज में था यौवन मेले में तरुणापा भूले भी नहीं देखा किसी चेहरे पे बुढ़ापा मित्रों के संग घुमा बाबा भूल गया सदी का पहला विहान ढल गया क्रमशः... ©संजीव #सदी #पहला #विहान #LostInCrowd
Vivek Kumar Singh
My twins Vihaan and Vivaan ©Vivek Kumar Singh मेरे विहान और विवान
Anjali Srivastav
माँ ने मुझको दे दिया,सुंदर एक वरदान कर्म पथ पर बढ़ो सदा,करो नवल विहान करके मेहनत बढ़ना तू,मिलेगी एक पहचान बस रखना ध्यान सदा, करना न अभिमान।। अंजली श्रीवास्तव माँ ने मुझको दे दिया,सुंदर एक वरदान कर्म पथ पर बढ़ो सदा,करो नवल विहान करके मेहनत बढ़ना तू,मिलेगी एक पहचान बस रखना ध्यान सदा, करना न अभिमान।।
SURAJ आफताबी
तू सिमट आता है दिये की लौ में ज्यों-ज्यों तू क्षितिज के अंक में ढ़लता है इतना तो मैंने स्वयं से भी नहीं कहा मेरे 'दिनकर' मगर, सारी निशा तेरा ओज मेरे मुख पर मलय मलता है ! माटी की इस छोटी सराई में विहंगम सा जो तू लहलाता है है पता मुझे ये, कि मेरी आंखों की उद्विग्नता को तू अपनी धीमी आंच से बड़ी मृदुलता से सहलाता है बुझ जाती है मेरी हर प्यास जो पूरी रात मेरी आगोश में जलता है इतना तो मैंने स्वयं से भी नहीं कहा मेरे 'दिनकर' मगर, सारी निशा तेरा ओज मेरे मुख पर मलय मलता है ! जब तमस ढ़ल नया विहान मेरी निद्रा तोड़ता है तू चढ़ जाता है अम्बर और मुझे नितांत इकला छोड़ता है मैं बिस्तर की सलवटें संग खुद को समेट फिर तेरे आने की भाट भरती हूं माना बहुत कुछ है पूर्ण-अपूर्ण तेरे और मेरे मध्य मगर सुन ओ मेरे 'दिनकर' मैं सिर्फ़ तुम्हीं और तुम्हीं से प्यार करती हूं !! कविता अदृश प्रेम की ! निशा - रात मलय - चंदन सराई - दीपक विहंगम - जो आसमान में विचरण करता है उद्विग्नता - व्याकुलता तमस - अंधियारा
||स्वयं लेखन||
संविधान! देश के संचालन का लिखित विधान है, अव्यवस्थाओं को दूर करने का समाधान है । भारत में जो हुई लोकहित में उद्घोषणा है, 26 नवंबर को लाया गया ये विहान है। 26 जनवरी 1950 में पूर्णरूप से हुआ आत्मसात हमारा संविधान है। ©||स्वयं लेखन|| देश के संचालन का लिखित विधान है, अव्यवस्थाओं को दूर करने का समाधान है । भारत में जो हुई लोकहित में उद्घोषणा है, 26 नवंबर को लाया गया ये विह
Triveni Shukla
पुलकित मन के स्पन्दन का नित निशा संग अनुनाद रहा, उगते सूरज की किरणों से एक बैर सा पाला है मैंने! दिन कोलाहल से भरा हुआ है रात पियारी घोर शान्त, निर्बाध विचरता रहता हूँ लेता विराम जब हो विहान! एकाग्रशील है मन मेरा अब सहज हो रहा चिन्तन भी, साकार 'कल्पना' करने को तादात्म्य हो रहे तन-मन भी! जग कहता जिनको निशाचरी वो दिवास्वप्न के मारे हैं, रातें उजली दिन कारे हैं ये 'रातों के उजियारे' हैं! !! रातों के उजियारे !! पुलकित मन के स्पन्दन का नित निशा संग अनुनाद रहा, उगते सूरज की किरणों से एक बैर सा पाला है मैंने! दिन